ओमनाथ गौदारा धांधलास जालप

ॐ नमः शिवाय:

ओमनाथ गौदारा

गाँव - धांधलास जालप, रलियावता रोड धड़ी,

तहसील - मेड़ता सीटी, जिला - नागौर, राजस्थान -341510

Friday 24 August 2012

गोरखवाणी


                                     ગોરક્ષ વાણી  गोरखवाणी Gorakhvani 

बस्ती न सुन्यं सुन्यं न बस्ती अगम अगोचर ऐसा।
गगन सिषर मंहि बालक बोलै ताका नांव धरहुगे कैसा॥१॥

हसिबा षेलिवा रहिबा रंग। कांम क्रोध न करिबा संग।
हसिबा षेलिबा गा‍इबा गीत। दिढ़ करि राषि आपनं चीत।७।

हसिबा षेलिवा धरिबा ध्यान। अहनिसि कथिबा ब्रह्म गियांन।
हसै षेलै न करै मन भंग। ते निहचल सदा नाथ के संग।८।

अहनिसि मन लै उनमन रहै गम कि छांड़ि अगम की कहै।
छाड़ै आसा रहै निरास कहै ब्रह्मा हूँ ताका दास।१६।

अजपा जपै सुंनि मन धरै पाँचों इंद्री निग्रह करै
ब्रह्म अगनि मै होमै काया तास महादेव बंदै पाया ।१६।

घन जोवन की करै न आस चित्त न राखै कांमनि पास।
नादबिंद जाकै घटि जरै ताकी सेवा पारबती करै।१९।

बालै जोबनि जे नर जती काल दुकालां ते नर सती ।
फुरतैं भोजन अलप अहारी नाथ कहै सो काया हमारी।२०।

पंथ बिन चलिबा अगनि बिन जलिबा अनिल तृषा जहटिया।
ससंबेद श्रीगोरख कहिया बूझिल्यौ पंडित पढ़िया।२२।

गगन मँडल में ऊंधाकूबा तहां अंमृत का बासा।
सगुरा हो‍इ सु भरि-भरि पीवै निगुरा जा‍इ पियासा॥२३॥

मरौ वे जोगी मरौ मरण है मीठा।
तिस मरणीं मरौ जिस मरणीं गोरष मरि दीठा॥२६॥

हबकि न बोलिबा ठबकि न चालिबा धीरैं धारिबा पावं।
गरब न करिबा सहजैं रहिबा भणत गोरष रावं॥२७॥

नाथ कहै तुम सुनहु रे अवधू दिढ़ करि राषहु चोया।
काम क्रोध अहंकार निबारौ तौ सबै दिसंतर कीया॥२९॥

स्वामी बनषडि जां तो षुध्या व्यापै नग्री जा‍उं त माया।
भरि भरि षा‍उं त बिद बियापै क्यों सीझति जल ब्यंद की काया॥३०॥

धाये न षा‍इबा भूषे न मारबा अहनिसि लेबा ब्रह्म अगनि क भेवं।
हठ न करिबा पड्या न रहिबा यूं बोल्या गोरष देवं॥३१॥

थोड़ा बोलै थोड़ षा‍इ तिस घटि पवनां रहै समा‍इ।
गगन मंडल से अनहद बाजै प्यंड पड़ै तो सतगुर लाजै॥३२॥

अवधू अहार तोड़ौ निद्रा मोड़ौ कबहुँ न हो‍इगा रोगी।
छठै छ मासै काया पलटिबा ज्यूं को को बिरला बिजोगी॥३३॥

देव कला ते संजम रहिबा भूत कला अहारं।
मन पवना लै उनमनि धरिबां ते जोगी तत सारं॥३४॥

अति अहार यंद्री बल करै नासै ग्यांन मैथुन चित धरै।
व्यापै न्यंद्रा झंपै काल ताके हिरदै सदा जंजाल॥३६॥

घटि घटि गोरख बाही क्यारी। जो निपजै सो हो‍ई हमारी।
घटि घटि गोरष कहै कहांणीं। काचै भांडै रहे न पांणी॥३७॥

घटि घटि गोरष फिरै निरुता। को घट जागे को घट सूता।
घटि घटि गोरष घटि घटि मींन। आपा परचै गुर मुषि चींन्ह॥३८॥

दूधाधारी परघरि चित। नागा लकड़ी चाहै नित।
मौनीं करै म्यंत्र की आस। बिनु गुर गुदड़ी नहीं बेसास॥४०॥

दषिणी जोगी रंगा चंगा पूरबी जोगी बादी।
पछमी जोगी बाला भोला सिध जोगी उतराधी॥४१॥

अवधू पूरब दिसि ब्याधिका रोग पछिम दिसि मिर्तु क सोग।
दक्षिण दिसि माया का भोग उत्यर दिसि सिध का जोग॥४२॥

घरबारी सो घर ली जाणै। बाहारि जाता भीतरि आणै।
सरब निरंतरि काटै माया। सो घरबारी कहि‍ए निरञ्जन की काया॥४४॥

अमरा निरमल पाप न पुंनि। सत रज बिबरजित सुंनि।
सोहं हंसा सुमिरै सबद। तिहिं परमारथ अनंत सिध॥४६॥

यहु मन सकती यहु मन सीव। यहु मन पांचतत्त्व का जीव।
यहु मन लेजै उनमन रहै। तौ तीनि लोक की बातां कहै॥५०॥१

सास उसास बा‍इकौं भषिवा रोकि लेहु नव द्वारं।
छठै छमासि काया पलटिबा तब उनमँनीं जोग अपारं॥५२॥

मन मैं रहिणा भेद न कहिणां बोलिबा अंमृत बाणीं।
आगिला अगनी हो‍इबा अवधू तौ आपण हो‍इबा पांणीं॥६३॥

उनमनि रहिबा भेद न कहिबा पीयबा नींझर पांणीं।
लंका छाड़ि पलंका जा‍इबा तब गुरमुष लेबा बांणीं॥६४॥

बैठ अवधू लोह की षूँति चलता अवधू पवन की मूंठी।
सोवता अवधू जीवता मूवा बोलता अवधू प्यंजरै सूवां॥७१॥

गोरष कहै सुणहुरे अवधू जग मैं ऐसैं रहणां।
आंषैं देषिबा कांनैं सुणिबा मुष थैं कछू न कहणां॥७२॥

अहार न्यंद्रा बैरी काल कैसे कर रखिबा गुरूका भंदार।
अहारतोड़ो निंद्रा मोड़ौ सिव सकती लै करि जोड़ौ॥८४॥

तब जानिबा अनाहद का बंध ना पड़ै त्रिभुवन नहीं पड़ै कंध।
रकत की रेत अंग थैं न छूटै जोगी कहतां हीरा न फूटै॥८५॥

निहचल धरि बैसिवा पवन निरोधिबा कदे न हो‍इगा रोगी।
बरस दिन मैं तौनि बार काया पलटिबा नाग बंग बनासपती जोजी॥९२॥

षोड़स नाड़ी चंद्र प्रकास्या द्वादस नाड़ी भांनं।
सहंस्रनाड़ी प्रांण का मेला जहाँ असंष कला सिव थांनं॥९३॥

जोगी सो जे मन जोगवै बिला‍इत राज भोगवै।
कनक कांमनी त्यागें दो‍इ सो जोगेस्वर निरभै हो‍इ॥१०२॥

बड़े बड़े कूले मोटे मोटे पेट नहीं रे पूता गुरू सौं भेंट।
षड़ षड़ काया निरमलनेत भ‍ई रे पूता गुरू सौं भेंट॥१०९॥

चेता रे चेतिबा आपा न रेतिबा पंच की मेटिबा आसा।
बदत गोरष सतिते सूरिवां उनमनि मन मैं बासा॥११४॥

कहणि सुहेली रहणि दुहेली कहणि रहणि बिन थोथी।
पढ्या गुंण्या सूबा बिला‍इ षाया पंडित के हाथि रह ग‍ई पोथी॥११९॥

कहणि सुहेली रहणि दुहेली बिन षांया गुड़ मींठा।
खा‍इ हींग कपूर बषांणै गोरष कहै सब झूठा॥१२०॥

आसण दिढ़ अहार दिढ़ जे न्यंद्रा दिढ़ हो‍ई।
गोरष कहै सुणौं रे पूता मरै न बूढ़ा हो‍ई॥१२५॥

को‍ई न्यंदै को‍ई ब्यंदै को‍ई करै हमारी आसा।
गोरष कहै सुणौं रे अवधू यहु पंथ षरा उदासा॥१२६॥

तूटी डोरी रस कस बहै। उनमनि लागा अस्थिर रहै।
उनमनि लागा हो‍ई अनंद। तूटी डोरीं बिनसै कंद॥१२८॥

अगम अगोचर रहै नीहकांम। भंवर गुंफा नांही बिसराम।
जुगती न जांणै जागैं राति मन कहू कै न आवै हाथि॥१३२॥

नव नाड़ी बहोतरि कोठां। ए अष्टांग सब झूठा।
कूंची ताली सुषमन करै उलटि जिभ्या ले तालू धरै॥१३३॥

भरि भरि षा‍इ ढरि ढरि जा‍इ। जोग नहीं पूता बड़ी बला‍इ।
संजम हो‍इ बा‍इ संग्रहौ। इस बिधि अकल षुरिस कौ गहौ॥१४५॥

षांये भी मरिये अणषांये भी मरिये। गोरष कहैं पूता संजमि ही तरिये।
मघि निरंतर कीजै बास। निहचल मनुवा थिर हो‍ई सांस॥१४६॥

पवन हीं जोग पवन हीं भोग। पवन हीं हरै छतीसौ रोग।
या पवन को‍ई जांणै भेव। सो आपै करता आपैं देव॥१४७॥

ब्यंद ही जोग ब्यंद ही भोग। ब्यंद हीं हरै चौसठि रोग।
या बिंद का को‍ई जांणै भेव। सो आपै करता आपैं देव॥१४८॥

साच का सबद सोना का रेख। निगुरां कौंचाणक सगुरा कौं उपदेस।
गुर क मुंड्या गुंन मैं रहै। निगुरा भ्रमै औगुण गहै॥१४९॥

गुरु की बाचा षोजैं नाहीं अहंकारी अहंकार करै।
षोजी जीवैं षोजि गुरू कौं अहंकारीं का प्यंड परै॥१५१॥

अवधू मन चंगा तो कठौती ही गंगा। बांध्या मेल्हा तो जगत्र चेला।
बदंत गोरष सति सरूप। तत बिचारैं ते रेष न रूप॥१५३॥

सीषि साषि बिसाह्या बुरा। सुपिनैं मैं धन पाया पड़ा।
परषि परषि लै आगैं धरा। नाथ कहै पूता षोटा न षरा॥१५४॥

स्वामी काची वा‍ई काचा जिंद। काची काया काचा बिंद।
क्यूं करि पाकै क्यूं करि सीझै। काची अगनी नीर न षीजै॥१५६॥

तौ देबी पाकी बा‍ई पाका जिंद। पाकी काया पाका बिंद।
ब्रह्म अगनि अषंडित बलै। पाका अगनी नीर परजलै॥१५७॥

सोवत आडां ऊभां ठाढ़ां। अगनीम ब्यंद न बा‍ई।
निस्चल आसन पवनां ध्यानं। अगनीं ब्यंद न जा‍ई॥१५८॥

अधिक तत्त ते गुरू बोलिये हींण तत्त ते चेला।
मन मांनैं तो संगि रमौ नहीं तौ रमौ अकेला॥१६१॥

पंथि चले चलि पवनां तूटैनाद बिंद अरु बा‍ई।
घट हीं भींतरि अठसठि तीरथ कहां भ्रमै रे भा‍ई॥१६३॥

जोगी हो‍इ परनिंद्या झषै। मद मांस अरु भांगि जो भषै।
इकोतरसै पुरिषा नरकहि जा‍ई। सति सति भषत श्रीगोरष रा‍ई॥१६४॥

अवधू मांसम भषत दया धरम का नास।
मद पीवत तहां प्राण निरास
भांगि भषंत ग्यांन ध्यांन षोवत।
जम दरबारी ते प्रांणीं रोवत॥१६५॥

चालिबा पथा कै सींबा कंथा। धरिबा ध्यांन कै कथिबा ग्यांनं।
एका‍एकी सिध सग। बदंत गोरषनाथ पूता न होयसि मन भग॥१६६॥

पढ़ि देखि पंडिता ब्रह्म गियांनं। मूवां मुकति बेकुंठा थांनं।
गाड्या जाल्या चौरासी मैं जा‍इ। सतिसति भाषंत गोरषरा‍ई॥१६७॥

आकास तत सदासिव जांण। तसि अभि‍अंतरि पद निरबांण।
प्यंडे परचांनैं गुरमुषि जो‍इ। बाहुडि आबा गवन न हो‍इ॥१६८॥

ऊरम धूरम ज्वाला जोति। सुरजि कला न छीपै छोति।
कंचन कवल किरणि परसा‍इ। जल मल दुरगंध सर्ब सुषा‍इ॥१६९॥

घटि घटि सूण्यां ग्यांन न हो‍इ। बनि बनि चंदन रूष न को‍इ।
रतन रिधि कवन कै हो‍इ। ये तत बूझै बिरला को‍ई॥१७०॥
कै मन रहै आसा पास। कै मन रहै परम उदास।
कै मन रहै गुरू के ओलै। कै मन रहै कांमनि कै षोलै॥१७२॥

बाहरि न भीतरि नड़ा न दूर। षोजत रहे द्रह्मा अरु सूर।
सेत फटक मनि हीरैं बीघा। इहि परमारथ श्री गोरश सीधा॥१७४॥

आवति पंचतत कूं मो है जाती छैल जगावै।
गोरष पूछै बाबा मछिंद्र या न्यंद्रा कहां थैं आवै॥१७५॥
गगन मंडल मैं सुंनि द्वार। बिजली चंमकै घोर अंधर।
ता महि न्यंद्रा आवै जा‍इ। पंच तत मैं रहै समा‍इ॥१७६॥

ऊभां बैठां सूतां लीजै। कबहूँ चित्त भंग न कींजै।
अनहद सबद गगन मैं गाजै। प्यंड पड़ै तो सतगुर लाजै॥१७७॥

एकलौ बीर दुसरौ धीर तीसरौ षटपट चोथौ उपाध।
दस पंच तहाँ बाद बिबाद॥१७८॥

एका‍एकी सिध नांउं दो‍इ रमति ते साधवा।
चारि पंच कुटुम्ब नांउं दस बीस ते लसकरा॥१७९॥

दरवेस सोइ जो दरकी जांणै। पंचे पवन अपूठां आंणै।
सदा सुचेत रहै दिन राति। सो दरवेस अलह कि जाति॥१८२॥

रूसता रूठ गोला-रोगी। भोला भछिक भूषा भोगी।
गोरष कहै सरबटा जोगी। यतनां मैं नहीं निपजै जोगी॥२१४॥

अवधू अहार कूं तोड़िबा पवन कूं मोड़िब ज्यं कबहु न हियबा रोगी।
छठै छमासि काया पलटंत नाग बंग बनासपतो जोगी॥२१५॥

जिभ्या इन्द्री एकैं नाल। जो राषै सो बंचै काल।
पंडित ग्यांनी न करसि गरब। जिभ्या जीती जिन जीत्या सरब॥२१९॥
गोरख कहै हमारा षरतर पंथ। जिभ्या इन्द्री दीजै बन्ध।
जोग जुगति मैं रहै समाय। ता जोगी कूं काल न खाय॥२२०॥

जीव सीव संगे बासा। बधि न षा‍इबा रुध्र मासा।
हंस घात न करिबा गोतं। कथंत गोरष निहारि पोतं॥२२७॥
जीव क्या हतिये रे प्यंड धारी। मारि लै पंचभू म्रगला।
चरै थारी बुधि बाड़ी। जोग का मूल है दया दाण॥
कथंत गोरष मुकति लै मानवा मारि लै रै मन द्रोही।
जाकै बप बरण मास नहीं लोही॥२२८॥

जोगी सो जो राषैं जोग। जिभ्या यंद्री न करै भोग।
अंजन छोड़ि निरंजन रहै। ताकू गोरष जोगी कहै॥२३०॥

सुंनि ज मा‍ई सुंनि ज बाप। सुंनि निरंजन आपै आप।
सुंनि कै परचै भया सथीर। निहचल जोगी गहर गंभीर॥२३१॥

अवधू यो मन जात है याही तै सब जांणि।
मन मकड़ी का ताग ज्यूं उलटि अपूठौ आंणि॥२३४॥

ऊजल मीन सदा रहै जल मैं सुकर सदा मलीना।
आतम ग्यांन दया बिणि कछू नाहीं कहा भयौ तन षीणा॥२४०॥

धोतरा न पीवो रे अवधू भांगि न षावौ रे भा‍ई।
गोरष कहै सुणौ रे अवधू या काया होयगी पराई॥२४१॥

रांड मुवा जती धाये भोजन सती धन त्यागी।
नाथ कहै ये तीन्यौ अभागी॥२४७॥

पढ़ि पढ़ि पढ़ि केता मुवा कथिकथिकथि कहा कीन्ह।
बढ़ि बढ़ि बढ़ि बहु धट गया पारब्रह्म नहीं चीन्ह॥ २४८॥


जप तप जोगी संजम सार। बाले कंद्रप कीया छार।
येहा जोगी जग मैं जोय। दूजा पेट भरै सब कोय॥२५३॥


सत्यो सीलं दोय असनांन त्रितीये गुर बाधक।
चत्रथे षीषा असनान पंचमे दया असनान।
ये पंच असनान नीरमला निति प्रति करत गोरख बला॥२५८॥


कथणी कथै सों सिष बोलिये वेद पढ़ै सो नाती।
रहणी रहै सो गुरू हमारा हम रहता का साथी॥२७०॥


रहता हमारै गुरू बोलिये हम रहता का चेला।
मन मानै तौ संगि फिरै नहितर फिरै अकेला॥२७१॥


दरसण मा‍ई दरसण बाप। दरसण माहीं आपै आप।
या दरसण का को‍ई जाणै भेव। सो आपै करता आपै देव॥२७२॥


नासिका अग्रे भ्रू मंडले अहनिस रहिबा थीरं।
माता गरभि जनम न आयबा बहुरि न पीयबा षीरं॥२७५॥

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