ओमनाथ गौदारा धांधलास जालप

ॐ नमः शिवाय:

ओमनाथ गौदारा

गाँव - धांधलास जालप, रलियावता रोड धड़ी,

तहसील - मेड़ता सीटी, जिला - नागौर, राजस्थान -341510

Wednesday 5 September 2012

आदेश आदेश


गोदारा परिवार  आपका हारिद्क स्वागत करता है ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~


ओमनाथ गोदारा  


गाँव- धांधलास जालप, रलियावता रोड धडी
तहसील- मेड़ता सीटी, जिला- नागौर  राजस्थान 341510 
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Sunday 26 August 2012

परम्परा 2


आपको पता है क्यों होते हैं लड़कियों के लंबे बाल

घने काले लम्बे बाल किसी भी लड़की के सौन्दर्य में चार चांद लगा देते हैं। लेकिन वर्तमान में बालों को कटवाने का चलन तेजी से बढ़ा है।
अपने घर के बुजुर्गो को आपने कहते सुना होगा कि लड़कियों के तो लम्बे बाल ही अच्छे रहते हैं दरअसल भारतीय परंपरा के अनुसार स्त्री को लम्बे बाल रखना अनिवार्य माना गया है क्योंकि हमारी संस्कृति में बालों को सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। साथ ही लम्बे बालों वाली स्त्री को देवी रूप माना जाता है।
लम्बे बाल रखने पीछे एक वैज्ञानिक कारण भी है वह यह कि महिलाओं का सिर पुरूषों की तुलना में अधिक कोमल होता है। जिस स्थान पर चोंटी रखने की परंपरा है, वहा पर सिर के बीचों-बीच सुषुम्ना नाड़ी का स्थान होता है।
शरीर विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि सुषुम्रा नाड़ी इंसान के हर तरह के विकास में बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। चोटी सुषुम्रा नाड़ी को हानिकारक प्रभावों से तो बचाती ही है, साथ में ब्रह्माण्ड से आने वाले सकारात्मक तथा आध्यात्मिक विचारों को केच यानि कि ग्रहण भी करती है।
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घूंघट की परंपरा कब से और क्यों?

घूंघट भारतीय परंपरा में अनुशासन और सम्मान का प्रतीक माना जाता है। घर की बहुओं को परिवार के बड़ों के आगे घूंघट निकालना होता है, ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह अनिवार्य है ही साथ ही कई महानगरीय परिवारों में भी ऐसा चलन है। सवाल यह है कि भारतीय परंपरा में घूंघट कब और कैसे आया? क्या सनातन समय से यह परंपरा चली आ रही है या फिर कालांतर में यह प्रचलन बढ़ा है?वास्तव में घूंघट हिंदुस्तान पर आक्रमण करने वाले आक्रमणकारियों की ही देन है। पहले राज्यों में आपसी लड़ाइयां और फिर मुगलों का हमला।
इन दो कारणों ने भारत में पूजनीय दर्जा पाने वाले महिला वर्ग को पर्दे के पीछे कर दिया। भारतीय महिलाओं की सुंदरता से प्रभावित आक्रमणकारी अत्याचारी होते जा रहे थे। महिलाओं के साथ बलात्कार और अपहरण की घटनाएं बढऩे लगीं तो महिलाओं की सुंदरता को छिपाने के लिए घूंघट का इजाद हो गया। पहले यह आक्रमणकारियों से बचने के लिए था, फिर परिवार में बड़ों के सम्मान के लिए और धीरे से इसने अनिवार्यता का रूप धारण कर लिया। आक्रमणकारी चले गए, देश आजाद हो गया लेकिन महिलाओं के चेहरों पर पर्दा अब भी कायम है।
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क्या आप जानते हैं क्यों दिखाते हैं दुल्हन को तारा?

हमारे देश में शादी से जुड़ी बहुत सारी परंपराएं हैं। भारत के हर क्षेत्र में शादी से जुड़ी कई अलग-अलग परंपरा है। विदाई से जुड़ी भी कई क्षेत्रीय परंपराएं है। उन्ही में से एक रस्म है विदाई के समय वधु को तारा दिखाने की मुख्य रूप से बिहार और उत्तर प्रदेश में इस परंपरा का निर्वाह किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह नववधु के जीवन पर सकारात्मक प्रभाव डालती है। कई जगह इस रस्म में वधु को ध्रुव तारा तो कुछ क्षेत्रों में अरूंधती तारा दिखाया जाता है।
अरून्धती महर्षि वसिष्ठ जी की पत्नी हैं। महर्षि वसिष्ठ सूर्यवंशी राजाओं के एकमात्र गुरू रहे हैं। अरून्धतीके समान रूप, गुण व धर्म-परायण दूसरी कोई स्त्री नहीं है तथा अरून्धती की आयु सात कल्पों तक मानी गई है। वे सदैव अपने पति के साथ रहती है। अरून्धती के अतिरिक्त अन्य किसी भी ऋषि पत्नी को सप्तर्षि मंडल में स्थान नहीं मिला है।
नववधू को विवाह के अवसर पर तारा दर्शन की रस्म के रूप में देवी अरून्धती के या ध्रुव तारे के ही दर्शन कराए जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि इसके दर्शन से अरून्धती और ध्रुव के जैसे गुणों का विकास नववधू में हो तथा जिस प्रकार अरून्धती का अखण्ड सौभाग्य बना हुआ है, उसी प्रकार नववधू का भी सौभाग्य अखण्ड रहे।
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लड़कियों के लिए उन दिनों परफ्युम लगाना वर्जित क्यों?

कहते हैं भगवान की सबसे खुबसुरत रचना स्त्री है। पुरूषों की तुलना में महिलाएं अधिक कोमल और भावुक होती है। स्त्री और पुरूष मे ईश्वर ने अनेक भिन्नताएं दी हैं। इन्ही भिन्नताओं में से एक है मासिक धर्म। मासिक धर्म के समय दिनों में महिलाओं के लिए सभी धार्मिक कार्य वर्जित किए गए हैं। साथ ही इस दौरान महिलाओं को अन्य लोगों से अलग रहने का नियम भी बनाया गया है। उन दिनों महिलाओं पर अधिक तीव्र खुशबु वाले परफ्युम लगाने को भी मना किया जाता है। आजकल के अधिकांश युवा इसे अंधविश्वास मानकर उस पर विश्वास नहीं करते हैं। मासिक धर्म के समय महिलाओं को अनेक तरह के शारीरिक व्याधियां परेशान करती है। जिसके कारण वे आम दिनों की अपेक्षा अधिक कमजोर हो जाती हैं। साथ ही इस समय कुछ विशेष तरह के हामौन्स का भी सिक्रे शन होता है। इसलिए इस समय नकारात्मक शक्तियां जल्दी ही महिलाओं को जो शारीरिक रूप से कमजोर उन्हे अपनी चपेट में ले लेती हैं। इसके अलावा ऐसा माना जाता है कि ये शक्तियां तीव्र गंध की तरफ भी बहुत अधिक आक र्षित होती हैं। इसलिए ऐसा कहा जाता है कि जब शारीरिक रूप से कमजोर महिलाएं जब तीव्र गंध लगा लेती हैं तो नकारात्मक शक्तियां उन्हें अपने प्रभाव में ले लेती हैं।
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दूल्हा-दुल्हन क्यों रचाते हैं मेंहदी?

हमारे यहां शादी में दूल्हा और दुल्हन को मेहंदी लगाने की परंपरा है। साथ ही हर खुशी के अवसर पर महिलाएं, युवतियां, लड़कियां मेहंदी जरूरी लगाती हैं। आजकल तो मेहंदी एक फैशन की तरह ट्रेंड में आ गई है। सामान्यत: बिना किसी विशेष अवसर के भी लड़कियों के हाथों में लगी मेंहदी दिखाई देती है। शादी एक ऐसा प्रसंग होता है जिसमें दूल्हा दुल्हन को बहुत अच्छे से सजाया और संवारा जाता है। हल्दी के अलावा शादी में मेंहदी की रस्म भी बड़ी धुमधाम से की जाती है। इस रस्म में दूल्हा- दुल्हन को मेंहदी लगाने के साथ ही नाच-गाना भी किया जाता है।
मेंहदी की रस्म के पीछे कारण सिर्फ इतना है कि मेंहदी को सौभाग्य सामग्री मानी जाती है। इसलिए माना जाता है कि दूल्हा या दुल्हन को मेंहदी जितनी गहरी रचती है उनका आपसी प्यार और सामंजस्य उतना ही अधिक होता है। मेहंदी को गंध के रूप में देवताओं को भी अर्पित किया जाता है। मेंहदी से दूल्हा या दुल्हन के सौन्दर्य में चार चांद लग जाते हैं। इसलिए हर खुशी के मौके पर मेंहदी लगाने की परंपरा शुरू की गई क्योंकि मेंहदी की तासीर ठंडी होती है। मेंहदी कई तरह की त्वचा के रोग मिटाते हैं। मेंहदी का प्रयोग गर्मी से राहत पाने के लिए भी किया जाता है।
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क्यों दिया जाता है सूर्य को अघ्र्य?

भारत में वैदिक काल से ही सूर्य को देवता के रूप में पूजा जा रहा है। अक्सर लोगों को यह लगता है कि सूर्य को जल चढ़ाने से सीधे कोई लाभ मिलता है या नहीं। वास्तव में सूर्य को जल चढ़ाने से हमारे व्यक्तित्व पर सीधा असर पड़ता है।
इसके दो कारण हैं। सूर्य को अघ्र्य देने के पीछे वैज्ञानिक कारण यह है कि जब हम सुबह जल्दी उठकर सूर्य को जल चढ़ाते हैं तो इससे सीधे-सीधे हमारे स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। सुबह की ताजी हवा और सूर्य की पहली किरणों हम पर पड़ती हैं। इससे हमारे चेहरे पर तेज दिखाई देता है।
दूसरा कारण है जब हम सूर्य को जल चढ़ाते हैं और पानी की धारा के बीच उगते सूरज को देखते हैं तो नेत्र ज्योति बढ़ती है, पानी के बीच से होकर आने वाली सूर्य की किरणों जब शरीर पर पड़ती हैं तो इसकी किरणों के रंगों का भी हमारे शरीर पर प्रभाव पड़ता है। जिससे विटामिन डी जैसे कई गुण भी मौजूद होते हैं। इसलिए कहा गया है कि जो उगते सूर्य को जल चढ़ाता है उसमें सूर्य जैसा तेज आता है।
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14 फरवरी को ही वेलेन्टाइन डे क्यों मनाते हैं?

वेलेन्टाइन डे कब से और क्यों मनाया जाने लगा?इसके बारे में अनेक मान्यताएं है। कुछ स्थानों पर ऐसा माना है कि संत वेलेन्टाइन को ईस्वी सन् 270 के फरवरी माह के मध्य दफन किया गया। उस समय रोम में सम्राट क्लॉडियस का शासन था। उसके अनुसार विवाह करने से पुरूषों की शक्ति और बुद्धि कम होती है। उसने इसलिए यह नियम बना दिया की कोई सैनिक या अधिकारी विवाह नहीं करेगा। संत वेलेंटाइन ने राजा के आदेश का विरोध किया। तब से उनकी स्मृति में प्रेम दिवस यानी वेलेंटाइन डे मनाया जाता है।प्राचीन रोम में फरवरी को सफाई का महीना मानते थे। घर के बाहर भीतर पुताइ़ लिपाई की जाती थी। वेलेन्टाइन के प्राचीन रोमन संस्कृति के मिलन दिवस के बतौर मनाया जाता है।
कुछ अन्य किंवदंतियों के मुताबिक रोमन जेल में बंद रहने वाले ईसाइयों को यातनांए दी जाती थी उन्हें भागने में वेलेन्टाइन मदद करते थे।इसीलिए उन्हें राजा ने मरवा दिया। एक अन्य मान्यता के मुताबिक वेलेन्टाइन स्वयं जेल में बन्दी थे तब वे जेलर की जवान लड़की से प्यार करने लगे जो प्रतिदिन उनसे मिलने आती थी। पहली बार वेलेन्टाइन ने अपने आपको ही वेलेन्टाइन ग्रीटिंग कार्ड भेजा था। पत्र में नीचे लिखा था। क्या तुम मेरी वेलेन्टाइन बनोगी। तभी से यह परंपरा अस्तित्व में आई। संत वलेन्टाइन की समृति में आज भी वेलेन्टाइन डे मनाया जाता है।
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वेलेन्टाइन डे पर पार्टनर को रेड रोज ही क्यों देते हैं?

जऱा सोचिए प्यार के बगैर जिंदगी या जिंदगी बगैर प्यार कैसा होगा? बिल्कुल एक मुरझाये फूल की तरह होगा ना। किसी भी व्यक्ति के लिए अपने आप से प्यार करना जितना आसान है दूसरों को प्यार देना उतना मुश्किल। प्यार करने वालें के ले ही हम कितने स्ट्रेस में क्यों न हों लेकिन हम उम्मीद करते हैं कि सब हम से प्यार से बात करें। आजकल की भागदौड़ भरी जिंदगी में एक-दूसरे के लिए वक्त ही नहीं निकाल पाते हैं।इसलिए रिश्तों में दूरियां बढ़ती जा रही है।
ऐसे में वेलेन्टाइन डे प्यार करने वालों के जीवन को फिर से एक नये उत्साह और उमंग से भर देता है। वेलेन्टाइन डे के दिन अपने पार्टनर को लाल गुलाब देने की परंपरा है। दरअसल लाल गुलाब देने का कारण यह है कि रिश्ते में हमेशा गर्माहट बनी रहे। लाल रंग जोश व उग्रता का भी प्रतीक है। जब आप किसी को प्रेम करते हैं और उसे लाल गुलाब देते हैं तो यह इस बात का प्रतीक है कि आप चाहते हैं कि आप दोनों का रिश्ता गुलाब के फूल की तरह ही ताजगी और सुन्दरता से भरा रहे।
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पूजा के समय क्यों बजाते हैं घंटियां?

पूजा के समय घर में शंख या घंटियां बजाई जाती है। साथ ही मंदिरों में लगी बड़ी-बड़ी घंटियां और बजाया जाने वाला शंख सिर्फ रस्मी तौर पर की जाने वाली क्रियाएं नहीं हैं। इनमें स्वास्थ्य और प्रकृति से जुड़ी बहुत महत्वपूर्ण बातें हैं। भारतीय सनातन परंपरा में जो भी पद्धतियां या परिपाटियां तय की गई हैं, वे बड़े वैज्ञानिक तथ्यों को ध्यान में रखकर तय की गई हैं।
मंदिर की घंटियों और शंख की ध्वनि में भी ऐसा ही वैज्ञानिक रहस्य है।शंख की ध्वनि शरीर और वातावरण दोनों को प्रभावित करती है। शंख बजाने के लिए शरीर से काफी जोर लगाना होता है। जो एक तरह की कसरत शरीर के लिए हो जाती है। इसके साथ ही शंख से निकलने वाली ध्वनि का एक विशेष प्रभाव होता है जो वातावरण में फैले अतिसूक्ष्म बैक्टिरिया को मारता जो सेहत के लिए हानिकारक होता है। इसी तरह घंटी की ध्वनि भी वातावरण को शुद्ध करती है।
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क्यों बनी जमीन पर बैठकर खाना खाने की परंपरा!

भारत में प्रचीन समय से ही जमीन पर बैठकर खाना खाने की परंपरा थी। लेकिन आज पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण डायनिंग टेबल पर खाना खाने की संस्कृति हमारे यहां बस चुकि है।हमारे पूर्वजो ने जो भी परंपरा बनाई थी उसके पीछे कोई गहरी सोच थी।
इसलिए जमीन पर सुखासन में बैठकर खाना खाने की परंपरा बनाई गई। जमीन पर सुखासन अवस्था में बैठकर खाने से वे कई स्वास्थ्य संबंधी लाभ प्राप्त कर शरीर को ऊर्जावान और स्फू र्तिवान बना सकते हैं।
जमीन पर बैठकर खाना खाते समय हम एक विशेष योगासन की अवस्था में बैठते हैं, जिसे सुखासन कहा जाता है। सुखासन पद्मासन का एक रूप है। सुखासन से स्वास्थ्य संबंधी वे सभी लाभ प्राप्त होते हैं जो पद्मासन से प्राप्त होते हैं।
- बैठकर खाना खाने से हम अच्छे से खाना खा सकते हैं।
- इस आसन से मन की एकाग्रता बढ़ती है।
- इस तरह खाना खाने से मोटापा, अपच, कब्ज, एसीडीटी आदि पेट संबंधी बीमारियों में भी राहत मिलती है।
- सुखासन से पूरे शरीर में रक्त-संचार समान रूप से होने लगता है। जिससे शरीर अधिक ऊर्जावान हो जाता है।
- इस आसन से मानसिक तनाव कम होता है और मन में सकारात्मक विचारों का प्रभाव बढ़ता है।
- इससे हमारी छाती और पैर मजबूत बनते हैं।
- सुखासन वीर्य रक्षा में भी मदद करता है।
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कब और क्यों ना पहने काले कपड़े?

हिन्दू शादियों में दूल्हा-दुल्हन को काले कपड़े नहीं पहनने दिया जाता है क्योंकि हमारे यहां यह मान्यता है कि काला रंग अशुभ होता है।
अधिकतर लोग इसे अंधविश्वास मानकर इस बात को नहीं मानते हैं क्योंकि काले रंग के कपड़े इन दिनों फैशन में है इसलिए आजकल शादी में दूल्हा- दुल्हन भी और उनके रिश्तेदार भी इस बात को अंधविश्वास मानकर टाल देते हैं।
लेकिन ज्योतिष के अनुसार भी शुभ कार्य में काले रंग के कपड़े नहीं पहनना चाहिए।इसलिए शादी में भी वस्त्रों में लाल, पीले और गुलाबी रंगों को अधिक मान्यता दी जाती है क्योंकि लाल रंग सौभाग्य का प्रतीक माना गया है। इसके पीछे वैज्ञानिक तथ्य यह है कि लाल रंग ऊर्जा का स्तोत्र है। लाल रंग सकारात्मक भावना का प्रतीक है।
इसके विपरीत जब नीले, भूरे और काले रंगों की मनाही करते हैं तो उसके पीछे भी वैज्ञानिक कारण हैं। काला और गहरा रंग नैराश्य का प्रतीक है और ऐसी भावनाओं को शुभ कार्यो में नहीं आने देना चाहिए। जब पहले ही कोई नकारात्मक विचार मन में जन्म ले लेंगे तो रिश्ते का आधार मजबूत नहीं हो सकता। इसलिए शादी में वर और वधु दोनों को ही काले कपड़े नहीं पहनना चाहिए।
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जल्दी शादी के लिए गुरुवार का व्रत ही क्यों?

कहते हैं जिन लोगों की कुंडली में दोष होता है उनकी शादी में विघ्र आते हैं या तो उनकी शादी या तो बहुत जल्दी होती है या बहुत देर से होती है। लोगों के विवाह में देरी का एक कारण मंगली लड़की या लड़के का ना मिलना भी होता है। समय पर योग्य वर या वधु नहीं मिल पाते हैं। जो मिलते हैं वहां कोई दूसरी समस्या सामने आ जाती है। ऐसे में शीघ्र विवाह के लिए गुरु के उपाय करने को कहा जाता है।
ज्योतिष के अनुसार गृहस्थ जीवन को गुरु प्रभावित करता है। पारिवारिक शांति और सुखमय गृहस्थ जीवन के लिए बृहस्पति यानी गुरु से संबंधित उपाय किए जाते है तो निश्चित ही घर में सुख शांति बनी रहती है। दरअसल गुरु को विवाह का कारक गृह माना जाता है। जब किसी की कुंडली में गुरु अशुभ होता है तो उसकी कुंडली में विवाह विलंब योग बनता है।गुरु को जन्मकुंडली के सप्तम भाव का कारक माना जाता है।
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केशदान की परंपरा है यहां क्योंकि...

तिरूपति बालाजी के प्रति हिंदूओं की अटूट आस्था है। ऐसा माना जाता है यहां साक्षात् भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी विराजमान हैं। यहां बालाजी की करीब 7 फीट ऊंची श्यामवर्ण की प्रतिमा स्थापित है। वैसे तो यहां कई परंपराओं का चलन है परंतु केशदान की अनूठी प्रथा सर्वाधिक प्रचलित है।
बालाजी मंदिर पर केशदान को लेकर कई मान्यताएं हैं। यहां केश समर्पित करने का अर्थ है कि श्रद्धालु अपना अहंकार, बुराइयां, जाने-अनजाने किए गए पाप को भगवान के चरणों में समर्पित कर बालाजी की नि:स्वार्थ भक्ति हृदय में स्थापित करता है। यहां केशदान करने के बाद भगवान बालाजी के चरणों में श्रद्धालु की भक्ति और अधिक बढ़ जाती है।
जिससे भगवान भक्त की सारी मनोकामनाएं पूर्ण कर उसे सुख और समृद्धि का वर प्रदान करते हैं। कई लोग अपनी मनोकामनाएं पूर्ण होने पर भी यहां केशदान करते हैं।प्राचीन काल में यह परंपरा लोग अपने-अपने घरों में ही संपन्न किया करते थे। परंतु आज बालाजी मंदिर के पास स्थित कल्याण कट्टा नामक स्थान पर सामूहिक रूप से केशदान संस्कार किया जाने लगा है। यहां केशदान के बाद श्रद्धालु पुष्करिणी में स्नान कर बालाजी के दर्शन करते हैं। जिससे अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।
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शनि दोष दूर करने के लिए किसे और क्यों दे चपाती?

शनि वैसे तो न्याय के देवता है परंतु यदि किसी व्यक्ति से कोई गलत और अधार्मिक कार्य हो गया है तो शनि उसके पाप का बुरा फल जरूर देते है। यह फल शनि साढ़ेसाती और ढैय्या के समय व्यक्ति के जीवन को पूरी तरह प्रभावित करता है।शनि के अशुभ प्रभाव को दूर करने के लिए काले कुत्ते को रोटी दी जाती है।
लेकिन शनि के अशुभ फल को दूर करने के लिए काले कुत्ते को ही चपाती क्यों दें? यह जिज्ञासा अक्सर लोगों के मन में होती है और जब उन्हें इसका उचित जवाब नहीं मिलता तो वे इसे अंधविश्वास मान लेते हैं। दरअसल इस उपाय को करने का कारण यह है शनि को श्याम वर्ण माना जाता है अर्थात् शनि देव स्वयं काले रंग के हैं और वे काले रंग के लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
साथ ही वराह संहिता के अनुसार काले कुत्ते को शनि का वाहन माना गया है। शनि को सेवा करने वाले और वफादार लोग पसंद होते हैं और काले कुत्ते में ये दोनों ही गुण होते हैं इसलिए शनि को प्रसन्न करने के लिए काले कुत्ते को तेल से लगी हुई चपाती देने की मान्यता है।
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मंदिर के अंदर ना जा पाएं तो करें किसके दर्शन?

मंदिर का वातावरण भी मन को लुभाने वाला होता है, मंदिर जाने से मन को शांति मिलती है। इन्हीं बातों की वजह से सभी मंदिर जाने की इच्छा रखते हैं लेकिन कुछ लोग समय अभाव या अन्य किसी कारण से मंदिर नहीं जा पाते। यदि कोई व्यक्ति प्रतिदिन भगवान के दर्शन करने नहीं जा पाता है तो ऐसे में जहां भी किसी मंदिर का शिखर दिखाई दे वहां से भगवान को याद करके शिखर दर्शन कर लेना चाहिए।
शास्त्रों के अनुसार मंदिर के शिखर दर्शन को भी भगवान के दर्शन के बराबर ही पुण्य देने वाला बताया गया है। मंदिर का शिखर भी उतना ही महत्व है जितना भगवान की प्रतिमा या मूर्ति का होता है। शास्त्रों में कहा गया है कि शिखर दर्शनम् पाप नाशम्। अर्थात शिखर के दर्शन करने से भी हमारे सभी पापों का नाश हो जाता है। इसलिए यदि आपके पास मंदिर जाने का वक्त नहीं है तो आप शिखर के दर्शन कर भी यदि अपने ईष्ट को याद करें तो आपको मानसिक शांति मिलती है।
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मांगलिक की शादी मांगलिक से ही क्यों?

कहते हैं जिन लोगों की कुंडली में मंगल दोष होता है उनकी शादी में विघ्र आते हैं या तो उनकी शादी या तो बहुत जल्दी होती है या बहुत देर से होती है। मंगली लोगों के विवाह में देरी का एक कारण मंगली लड़की या लड़के का ना मिलना भी होता है। समय पर योग्य वर या वधु नहीं मिल पाते हैं। जो मिलते हैं वहां कोई दूसरी समस्या सामने आ जाती है। जब ऐसी परिस्थिति बनती है तो मन में यह ख्याल आता है कि क्या अनिवार्य है कि मंगली लड़के की शादी मंगली लड़की से ही कि जाए? ऐसे में कई लोग इस मान्यता को अंधविश्वास मान लेते है।
लेकिन यह अंधविश्वास नहीं है ज्योतिष के अनुसार मंगली स्त्री या पुरुष अपने जीवन साथी से विशेष अपेक्षाएं रखते हैं, तथा जीवन साथी के मामले में बहुत संवेदनशील होते हैं। मंगली जातक सहवास के मामले में प्रबल होते है, अत: वह अपने साथी से भी उतनी अपेक्षा रखते है। परंतु यदि उनका साथी पूर्णत: उनका सहयोग नहीं करता, तब उनमें विवाद उतपन्न होने का भय होता है। इस कारण शास्त्र जोर देता है कि मंगली का विवाह मंगली से हि हो परंतु कही-कही अपवाद स्वरूप लड़के की कुंडली में मंगल हो और लड़की की कुंडली में 1, 4, 7, 8, 12 स्थान में शनि हो या मंगल के साथ गुरु हो तब भी मंगल का प्रभाव समाप्त माना जाता है। मंगली जातक का विवाह विलंब से पर अच्छी जगह होता है।
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घर में मंदिर क्यों बनवाते हैं?

भारत में ऐसी मान्यता है कि जिस घर में मंदिर नहीं होता वहां सुख और शांति नहीं रहती है। इसलिए घर में मंदिर बनवाए जाते है लेकिन यदि हम वास्तु के नजरिए से देखें तो घर के अंदर सही दिशा में मंदिर बनवाने का अपना महत्व है। वास्तु के अनुसार घर में पूजास्थल या मंदिर जरूर बनवाना चाहिए क्योंकि इससे मानसिक शांति मिलती है।
साथ ही पूजा घर हमेशा ईशान्य कोण में बनाना चाहिए।इस मान्यता का मुख्य कारण यह है कि ईशान्य कोण यानी उत्तर-पूर्व के कोने का स्वामी गुरु है। ज्योतिष के अनुसार गुरु अध्यात्म और धर्म का ग्रह है।ईशान्य सात्विक ऊर्जाओं का प्रमुख स्त्रोत है। किसी भी भवन में ईशान्य कोण सबसे ठंडा क्षेत्र है। वास्तु पुरूष का सिर ईशान्य में होता है। जिस घर में ईशान्य कोण में दोष होगा उसके निवासियों को दुर्भाग्य का सामना करना पड़ता है।
ईशान्य कोण का अधिपति शिव को माना गया है। ऐसा माना जाता है कि घर के इस कोने में पूजा करने से घर की सकारात्मक ऊर्जा में तेजी से वृद्धि होती है। साथ ही पूजा घर बनवाने से घर की सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि से घर के हर सदस्य को अपने कार्य में क्षेत्र में सफलता मिलने लगती है।
इसलिए पूजा घर हमेशा ईशान्य कोण में बनवाया जाता है।
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एक ही गौत्र में शादी क्यों नहीं की जाती?

हिन्दू धर्म में शादी से पहले गौत्र मिलान और कुंडली मिलान की भी परंपरा है कुछ लोग इस प्रथा को अंधविश्वास मानकर टाल देते हैं तो कुछ लोग इसे सही मानते हैं। दरअसल यह कोई अंधविश्वास नहीं है। इसके पीछे धार्मिक कारण यह है कि हमारी धार्मिक मान्यता के अनुसार एक ही गौत्र या एक ही कुल में विवाह करना पूर्णतया प्रतिबंधित किया गया है।यह प्रतिबंध इसलिए लगाया गया क्योंकि एक ही गौत्र या कुल में विवाह होने पर दंपत्ति की संतान अनुवांशिक दोष के साथ उत्पन्न होती है।
ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा, पसंद, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता। ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है। विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगौत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात् मानसिक विकलांगता, अपंगता, गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगौत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया था।
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गर्भवती महिलाओं कहां और क्यों नहीं जाना चाहिए?

गर्भवती महिला को बच्चे के जन्म से पूर्व अनेक सावधानियां रखनी होती हैं। जिससे बच्चे के जन्म के बाद जच्चा और बच्चा दोनों स्वस्थ्य रहे। इसलिए हमारे यहां बच्चे के जन्म के पूर्व की भी अनेक परंपराएं हैं जिनका गर्भवती महिला को पालन करना होता है। ऐसी ही एक परंपरा है कि गर्भवती स्त्री को सातवें महीने के बाद नदी व नाले पार नहीं करना चाहिए या उनके पास नहीं जाना चाहिए ताकि माता और उसके गर्भ में पल रहा शिशु दोनों की सुरक्षा और सेहत अच्छी बनी रहे।
आजकल के अधिकांश लोग इस परंपरा का पालन नहीं करते हैं क्योंकि वे इसे सिर्फ अंधविश्वास मानते हैं। लेकिन ये मान्यता अंधविश्वास नहीं है दरअसल इसके पीछे कई कारण छुपे हैं। ऐसा माना जाता है कि नदी और नाले जैसे जो क्षेत्र रहते हैं वहां नकारात्मक ऊर्जा और आत्माओं का निवास होता है। इसीलिए श्मशान भी नदी के किनारे बनाये जाते हैं और ऐसे स्थानों पर ही तंत्र साधना की जाती है।जब कोई स्त्री गर्भवती होती है तो उसके शरीर में बहुत सारे शारिरीक परिवर्तन होते हैं। उनका शरीर सामान्य से अधिक संवेदनशील होता है। ऐसे में नदी या नाले को पार करने से या उनके पास जाने से होने वाले बच्चे पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा इसका एक अन्य कारण यह भी है कि एक बार जब गोद भराई करके होने वाले शिशु की मां को मायके भेज दिया जाता है। तो वो वहां अच्छे से आराम करे और यात्राएं ना करे ताकि होने वाली संतान स्वस्थ्य हो क्योंकि सातवे महीने के बाद गर्भवती महिलाओं को यात्रा करने पर कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।
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सामाजिक एकता के प्रतीक हैं संत रविदास

हमारे देश में समय-समय पर कई महान संत हुए जिन्होंने समाज को एक नई दिशा दी तथा समाज में फैली कुरीतियों को दूर किया। संत रविदास भी उन्हीं में से एक थे। संत रविदास को ही रैदास के नाम से भी जाना जाता है।
संत रविदास ने साधु-सन्तों की संगति से व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा पाई। जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे। प्रारम्भ से ही रैदास बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव था।
साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। उन्होंने समाज में फैली छुआ-छूत, ऊँच-नीच आदि सामाजिक बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। संत रविदास की भक्ति से प्रभावित भक्तों की एक लंबी श्रृंखला है। संत रविदास के आदर्शों और उपदेशों को मानने वाले रैदास पंथी कहलाते हैं। रविदास के पद, नारद भक्ति सूत्र और रविदास की बानी उनके प्रमुख संग्रह हैं।
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कब और क्यों ना करें सफाई?

सामान्यत: सभी के घरों में सुबह-सुबह ही नहाने से पूर्व ही साफ-सफाई का कार्य कर लिया जाता है। सभी धर्म शास्त्रों के अनुसार शाम या रात्रि के समय घर की साफ-सफाई निषेध की गई है। इसकी वजह यह है कि घर के कचरे में बीमारी फैलाने वाले कीटाणु रहते हैं जो सफाई के समय हमारे शरीर पर चिपक जाते हैं, यह कीटाणु स्वास्थ्य के हानिकारक होते हैं।
सुबह सफाई करने के बाद घर के सभी सदस्य नहा लेते हैं जिससे शरीर पर लगे बीमारी के कीटाणु धुल जाते हैं और उन कीटाणुओं से बीमार होने की संभावना समाप्त हो जाती है। परंतु यदि रात्रि के समय सफाई करेंगे तो वह सारे कीटाणु घर के सदस्यों के शरीर पर चिपक जाएंगे। रात्रि के समय सभी सदस्य नहाते भी नहीं है ऐसे में उन कीटाणुओं से हमारे स्वास्थ्य को खतरा रहता है। तो उस खतरे से हमें बचाने के लिए रात्रि के समय साफ-सफार्ई निषेध की गई है।
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मृत व्यक्ति के बिस्तर क्यों ना रखें?

भारत मान्यताओं और परंपराओं का देश है। हमारी कोई भी परंपरा अंधविश्वास नहीं है। हमारे यहां हर परंपरा के पीछे कुछ तथ्य या वैज्ञानिक आधार है। किसी परिवार के सदस्या या संबंधी के मौत हो जाने पर भी हमारे यहां अनेक परंपराओं का पालन किया जाता है। मृत्यु एक अटल सत्य है। जिसने जन्म लिया है उसे मृत्यु अवश्य प्राप्त होगी। हिंदू धर्म में मृत्यु के संबंध में कई महत्वपूर्ण नियम बनाए गए हैं। ऐसा ही एक नियम है मृत व्यक्ति के बिस्तर घर में ना रखने का।
इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि मृत व्यक्ति के शरीर में जो सुक्ष्मजीव होते हैं वे उसके बिस्तर पर भी होते हैं। हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार किसी घर में मौत होती है तो उस घर में बारह दिन का सुतक रहता है और बारह दिन तक घर में पूजा-पाठ भी नहीं किया जाता है उसके बाद सुतक निकाला जाता है और उसके बिस्तर भी दान कर दिए जाते हैं उस व्यक्ति के बिस्तर जिस पर उसकी मृत्यु होती है। घर में नहीं रखे जाते हैं क्योंकि मृत व्यक्ति के बिस्तर रखने से घर में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह भी होता है।
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स्ट्रेस कम करने के लिए ऊँ का जप ही क्यों

आज की जिन्दगी भागदौड़ से भरी है। इसीलिए मानसिक तनाव होना एक आम बात है। मानसिक तनाव से छुटकारा पाने के लिए योगा व मेडिटेशन के साथ ऊँ का जप करने की सलाह दी जाती है। ऐसा माना जाता है कि मानसिक तनाव से राहत पाने का यह सबसे कारगर तरीका है। मानसिक तनाव ऊँ के उच्चारण के कई सारे फायदे हैं। ऊँ की ध्वनि मानव शरीर के लिये प्रतिकुल डेसीबल की सभी ध्वनियों को वातावरण से निष्प्रभावी बना देती है।विभिन्न ग्रहों से आने वाली अत्यंत घातक अल्ट्रावायलेट किरणों का प्रभाव ओम की ध्वनि की गुंज से समाप्त हो जाता है।
मतलब बिना किसी विशेष उपाय के भी सिर्फ ओम् के जप से भी अनिष्ट ग्रहों के प्रभाव को कम किया जा सकता है। ऊँ का उच्चारण करने वाले के शरीर का विद्युत प्रवाह आदर्श स्तर पर पहुंच जाता है। इसके उच्चारण से इंसान को वाक्सिद्धि प्राप्त होती है। नींद गहरी आने लगती है। साथ ही अनिद्रा की बीमारी से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाता है।मन शांत होने के साथ ही दिमाग तनाव मुक्त हो जाता है।
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क्यों और कब चढ़ाएं तुलसी को जल?

घर के आंगन में तुलसी का पौधा सिर्फ एक पौधा भर नहीं होता है। यह सुख, संपत्ति, ज्ञान, विवेक और स्वास्थ्य का उत्तम खजाना है। कहते हैं, जिस घर के आंगन में तुलसी निवास करती है, वहां सुख और स्वास्थ्य स्वत: ही चले आते हैं, आनंद और पुण्यफल की वर्षा होती है।प्रात: काल पूजा में सूर्य को अर्ध्य के पश्चात तुलसी को जल चढ़ाना चाहिए। तुलसी को जल चढ़ाना भी स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है। तुलसी का सामीप्य पाने हेतु उसके करीब जाना होता है तुलसी एक गुणकारी औषधीय पौधा है। उसकी पत्तियां अपने अंदर अनेक औषधीय गुणो को समेटे हुए है। जल चढ़ाने जब हम उसके करीब जाते हैं तब उसकी सुगंध से हमारे शरीर में स्थित जीवाणु नष्ट हो जाते हैं।जो हमें सर्दी-जुकाम फ्लू ज्वर आदि से रक्षा करती है। इसके अलावा तुलसी का पौधा घर में होने से हवा के साथ उसके बीज एवं सुगंध पूरे घर में फैल जाती है।
जिससे घर के सभी लोग मानसिक एवं शारीरिक रूप से स्वस्थ रहते हैं।तुलसी के इन्हीं गुणो के कारण उनकी पूजन होती है। तथा घर-घर में उनका पौधा रोपा जाता है। तुलसी के पत्तों का भगवान विष्णु के प्रसाद के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। तुलसी को हम सम्मान के नजरिए से देखते हैं। उनका पूजन करते हैं। अत: उनके पत्तों को दांतों से चबाकर सेवन करना निषेध है। तुलसी के पत्तों का सेवन चूसकर निगलने के रूप में ही किया जाता है।



पूजन में नारियल क्यों?

नारियल को शुद्धता और पवित्रता का प्रतीक माना जाता है। घर में कोई भी त्यौहार हो या किसी विशेष पूजा का अवसर हो तो नारियल जरूर चढ़ाया जाता है। पूजन में नारियल का प्रयोग लक्ष्मीजी के रूप में होता है। नारियल को श्रीफल भी कहा जाता है। धन अर्पित करने की हमारी शक्ति नहीं परंतु प्रतीक रूप से हम भगवान को श्रीफल अर्पित करते हैं। जिससे धन का अहंकार हमारे भीतर से निकल जाए और हम नारियल के भीतर की तरह श्वेत, कोमल और दोषरहित हो जाए। नारियल ऊपर से जितना कठोर होता है अंदर से उतना मुलायम। जिसका स्वाद सभी को अच्छा लगने वाला है। पूजा में नारियल क्यों अर्पित किया जाता है?
इसके कई कारण हैं... जैसे नारियल का जल मीठा और स्वास्थ्यवर्धक और बलदायक होता है उसी को हम प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं। रुद्ररूप से भी नारियल का पूजन किया जाता है। रुद्र हमारे गर्व का हनन करते हैं। इसलिए किसी-किसी पूजन में नारियल को बधार कर हम प्रतद्मक रूप से हमारे मान, गर्व भगवान के चरणों में समर्पित कर देते हैं।
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शिवलिंग पर शिवरात्रि पर ना चढ़ाएं हल्दी क्योंकि...

शिवरात्रि शिवजी का पर्व माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन शिवलिंग का पूजन करने से शिव का विशेष आशीर्वाद प्राप्त होता है। शिवलिंग शिवजी का ही साक्षात रूप माना जाता है। विधि-विधान से शिवलिंग का पूजन करने से शिवजी प्रसन्न होते हैं और साथ ही सभी देवी-देवताओं की कृपा भी प्राप्त होती है। शिवलिंग एक दैवीय शक्ति है, जो हमारी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करती है।सामान्यत: देवी-देवताओं के विधिवत पूजन आदि कार्यों में बहुत सी सामग्रियां शामिल की जाती हैं। इन सामग्रियों में हल्दी भी शामिल की जाती है। हल्दी एक औषधि भी है और हम इसका प्रयोग सौंदर्य प्रसाधन में भी किया जाता हैं। धार्मिक कार्यों में भी हल्दी का महत्वपूर्ण स्थान है। कई पूजन कार्य हल्दी के बिना पूर्ण नहीं माने जाते।
पूजन में हल्दी गंध और औषधि के रूप में प्रयोग की जाती है। हल्दी शिवजी के अतिरिक्त सभी देवी-देवताओं को अर्पित की जाती है। हल्दी का स्त्री सौंदर्य प्रसाधन में मुख्य रूप से उपयोग किया जाता है।शास्त्रों के अनुसार शिवलिंग पुरुषत्व का प्रतीक है, इसी वजह से महादेव को हल्दी इसीलिए नहीं चढ़ाई जाती है।जलाधारी पर चढ़ाते हैं हल्दीशिवलिंग पर हल्दी नहीं चढ़ाना चाहिए परंतु जलाधारी पर चढ़ाई जानी चाहिए।शिवलिंग दो भागों से मिलकर बनी होती है। एक भाग शिवजी का प्रतीक है और दूसरा हिस्सा माता पार्वती का। शिवलिंग चूंकि पुरुषत्व का प्रतिनिधित्व करता है अत: इस पर हल्दी नहीं चढ़ाई जाती है। हल्दी स्त्री सौंदर्य प्रसाधन की सामग्री है और जलाधारी मां पार्वती से संबंधित है अत: इस पर हल्दी जाती है।
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शिवजी को क्यों चढ़ाते हैं धतूरा और भांग?

कहते हैं शिवरात्रि या सावन के महीने में शिव के पूजन का विशेष महत्व है। शिव की आराधना करने वाले उन्हें प्रसन्न करने के लिए भांग और धतूरा चढ़ाते हैं। लेकिन अधिकांश लोग यह बात नहीं जानते हैं कि उन्हें प्रसन्न करने के लिए धतुरा और भांग जैसी चीजे जिन्हें अनुपयोगी माना गया है क्यों चढ़ाते हैं?
दरअसल भगवान शिव सन्यासी हैं और उनकी जीवन शैली बहुत अलग है। वे पहाड़ों पर रह कर समाधि लगाते हैं और वहीं पर ही निवास करते हैं। जैसे अभी भी कई सन्यासी पहाड़ों पर ही रहते हैं। पहाड़ों में होने वाली बर्फबारी से वहां का वातावरण अधिकांश समय बहुत ठंडा होता है। गांजा, धतूरा, भांग जैसी चीजें नशे के साथ ही शरीर को गरमी भी प्रदान करती हैं।
जो वहां सन्यासियों को जीवन गुजारने में मददगार होती है। अगर थोड़ी मात्रा में ली जाए तो यह औषधि का काम भी करती है, इससे अनिद्रा, भूख आदि कम लगना जैसी समस्याएं भी मिटाई जा सकती हैं लेकिन अधिक मात्रा में लेने या नियमित सेवन करने पर यह शरीर को, खासतौर पर आंतों को काफी प्रभावित करती हैं।
इसकी गर्म तासीर और औषधिय गुणों के कारण ही इसे शिव से जोड़ा गया है। भांग-धतूरे और गांजा जैसी चीजों को शिव से जोडऩे का एक और दार्शनिक कारण भी है। ये चीजें त्याज्य श्रेणी में आती हैं, शिव का यह संदेश है कि मैं उनके साथ भी हूं जो सभ्य समाजों द्वारा त्याग दिए जाते हैं। जो मुझे समर्पित हो जाता है, मैं उसका हो जाता हूं।
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शिवरात्रि पर बिल्वपत्र चढ़ाने का है विशेष महत्व क्योंकि...

भगवान शिव आदि व अनंत है। जिन वस्तुओं को संसार अनुपयोगी या ग्रहण करने योग्य नहीं मानता है जैसे भांग, धतूरा, आंक, बिल्वपत्र वे सभी शिव को प्रिय है यानी शिव वे है जो श्रद्धा से अर्पित किए गए कांटों को भी प्रेम से स्वीकार करते हैं। कहते हैं शिव की पूजा करने से हर तरह का सुख प्राप्त होता है। 2 मार्च को महाशिवरात्रि का महापर्व है।
माना जाता है कि इस दिन शिव के पूजन अर्चन से भक्तों पर उनकी विशेष कृपा होती है। इस दिन शिवजी को पूजन के समय बिल्वपत्र विशेष रूप से अर्पित किए जाते हैं क्योंकि बिल्वाष्टक के अनुसार बिल्वपत्र में तीन पत्र यानी तीन पत्ते होते हैं। जो कि तीन शक्तियों मतलब त्रिदेवों का स्वरूप होते हैं।
ऐसी मान्यता है कि शिव को बिल्वपत्र चढ़ाने से तीन जन्मों के आर्थिक, शारीरिक और मानसिक कष्ट नष्ट होते हैं। साथ ही इसका एक कारण यह भी है कि बिल्वपत्र एक तरह की औषधी है और यह कई तरह की बीमारियों को मिटाता है। इसे शिव को मंत्रों के साथ अर्पित कर ग्रहण करने से दिल से संबंधित बीमारियों और मधुमेह जैसे रोगों में लाभ मिलता है।
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क्यों करते हैं शिव का रुद्राभिषेक?

शिवरात्रि शिवजी की आराधना करने से शिव की कृपा प्राप्त होती है।अधिकांश शिव भक्त इस दिन शिवजी का अभिषेक करते हैं। लेकिन बहुत कम ऐसे लोग है जो जानते हैं कि शिव का अभिषेक क्यों करते हैं?
अभिषेक शब्द का अर्थ है स्नान करना या कराना। यह स्नान भगवान मृत्युंजय शिव को कराया जाता है। अभिषेक को आजकल रुद्राभिषेक के रुप में ही ज्यादातर पहचाना जाता है। अभिषेक के कई प्रकार तथा रुप होते हैं। किंतु आजकल विशेष रूप से रुद्राभिषेक ही कराया जाता है।रुद्राभिषेक का मतलब है भगवान रुद्र का अभिषेक यानि कि शिवलिंग पर रुद्रमंत्रों के द्वारा अभिषेक करना।
रुद्राभिषेक करना शिव आराधना का सर्वश्रेष्ठ तरीका माना गया है। शास्त्रों में भगवान शिव को जलधाराप्रिय:, माना जाता है। भगवान रुद्र से सम्बंधित मंत्रों का वर्णन बहुत ही पुराने समय से मिलता है। रुद्रमंत्रों का विधान ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद में दिये गए मंत्रों से किया जाता है। रुद्राष्टाध्यायी में अन्य मंत्रों के साथ इस मंत्र का भी उल्लेख मिलता है।
अभिषेक में उपयोगी वस्तुएं: अभिषेक साधारण रूप से तो जल से ही होता है। विशेष अवसर पर या सोमवार, प्रदोष और शिवरात्रि आदि पर्व के दिनों में गोदुग्ध या अन्य दूध मिला कर अथवा केवल दूध से भी अभिषेक किया जाता है। विशेष पूजा में दूध, दही, घृत, शहद और चीनी से अलग-अलग अथवा सब को मिला कर पंचामृत से भी अभिषेक किया जाता है। तंत्रों में रोग निवारण हेतु अन्य विभिन्न वस्तुओं से भी अभिषेक करने का विधान है।


क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....omnath godara

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परम्परा


परम्परा


सुबह उठते ही सबसे पहले क्या और क्यों देखें?

प्रतिदिन सुबह-सुबह हमारा एक प्रश्न होता है कि हमारा दिन कैसा रहेगा? दिन को अच्छा बनाने के लिए सभी कुछ न कुछ धर्म कर्म अवश्य ही करते हैं। सभी चाहते हैं कि उनका नया दिन शुभ रहे, खुशियां देने वाला हो, दुख दूर करने वाला हो और सफलताएं दिलाने वाला हो। शास्त्रों के अनुसार एक सटिक उपाय बताया गया है जिससे हमारा पूरा दिन श्रेष्ठ बनता है और सभी दुख-क्लेश दूर होते हैं।
सुबह उठते ही सबसे पहले क्या करना चाहिए कि हमारा पूरा दिन अच्छा रहे और घर-परिवार में सुख-शांति बनी रहे? कई लोग भगवान के दर्शन करते हैं तो कुछ अपने घर के सदस्यों का चेहरा देखते हैं लेकिन बिस्तर छोडऩे से पहले हमें हमारे हाथों के दर्शन करने चाहिए। कुछ लोग सोचते हैं कि हाथों के दर्शन से होगा? तो इस प्रश्न का उत्तर यह है कि धर्म ग्रंथों और ऋषि-मुनियों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि हमारे हाथों की हथेलियों में दैवीय शक्तियां निवास करती हैं।
इसी वजह से हमें सुबह उठते ही सबसे पहले अपने हाथों की हथेलियों के दर्शन करने चाहिए। दोनों हाथों को मिलाकर उसके दर्शन करके ही बिस्तर छोडऩा चाहिए।
हमारे हाथ के आगे के हिस्से में (अंगुलियों की ओर) लक्ष्मी, मध्य भाग में सरस्वती और नीचले भाग में नारायण यानी विष्णु का वास होता है। प्रात: हाथों के दर्शन से ही तीनों दिव्य शक्तियों के दर्शन का पुण्य मिलता है। सुबह हथेलियों का दर्शन करने के पीछे यही संदेश है कि हम परमात्मा से अपने कर्मों में पवित्रता और शक्ति की कामना करते हैं। संसार का सारा वैभव, शिक्षा, पराक्रम हमें हाथों के जरिए ही मिलता है। इसलिए हाथों में लक्ष्मी, सरस्वती और विष्णु तीनों का वास माना गया है।
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व्रत-उपवास से क्या होता है? और क्यों?

आज अधिकांश लोग अत्यधिक वजन से परेशान है। असंतुलित खान-पान और अनियमित दिनचर्या के परिणामस्वरूप शरीर में फेट (वसा) बढऩे लगता है, जिससे मोटापा की बीमारी हो जाती है। इसका हमारे स्वास्थ्य पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता है। इसी तरह की कई बीमारियों से बचने के लिए व्रत-उपवास काफी कारगर उपाय है साथ ही इससे धर्म लाभ भी प्राप्त होता है।
व्रत का अर्थ है संकल्प या दृढ़ निश्चय तथा उपवास का अर्थ ईश्वर या इष्टदेव के समीप बैठना भारतीय संस्कृति में व्रत तथा उपवास का इतना अधिक महत्व है कि हर दिन कोई न कोई उपवास या व्रत होता ही है। सभी धर्मों में व्रत उपवास की आवश्यकता बताई गई है। इसलिए हर व्यक्ति अपने धर्म परंपरा के अनुसार उपवास या व्रत करता ही है। वास्तव में व्रत उपवास का संबंध हमारे शारीरिक एवं मानसिक शुद्धिकरण से है। इससे हमारा शरीर स्वस्थ रहता है। व्रत कई प्रकार के होते हैं जैसे नित्य, नैमित्तिक, काम्य व्रत।
नित्य व्रत भगवन को प्रसन्न करने के लिए निरंतर किया जाता है।
नैमित्तिक व्रत किसी निमित्त के लिए किया जाता है।
काम्य: किसी कामना से किया व्रत काम्य व्रत है।
व्रत के स्वास्थ्य लाभ: व्रत उपवास से शरीर स्वस्थ रहता है। निराहार रहने, एक समय भोजन लेने अथवा केवल फलाहार से पाचनतंत्र को आराम मिलता है। इससे कब्ज, गैस, एसिडीटी अजीर्ण, अरूचि, सिरदर्द, बुखार, मोटापा जैसे कई रोगों का नाश होता है। आध्यत्मिक शक्ति बढ़ती है। ज्ञान, विचार, पवित्रता बुद्धि का विकास होता है। इसी कारण उपवास व्रत को पूजा पद्धति को शामिल किया गया है।
व्रत किसे नहीं करना चाहिए- सन्यासी, बालक, रोगी, गर्भवती स्त्री, वृद्धों को उपवास करने पर छूट प्राप्त है।
व्रत के नियम है: जिस दिन उपवास या व्रत हो उस दिन इन नियमों का पालन करना चाहिए:
- किसी प्रकार की हिंसा न करें।
- दिन में न सोएं।
- बार-बार पानी न पिएं।
- झूठ न बोलें। किसी की बुराई न करें।
- व्यसन न करें।
- भ्रष्टाचार न करने का संकल्प लें।
- व्यभिचार न करें।
- किसी भी प्रकार का अधार्मिक कृत्य न करें अन्यथा व्रत का पूर्ण पुण्य लाभ प्राप्त नहीं हो पाता है।
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ताली कब और क्यों बजाते हैं?

सामान्यत: हम किसी भी मंदिर में आरती के समय सभी को ताली बजाते देखते हैं और हम खुद भी ताली बजाना शुरू कर देते हैं। ऐसे कई मौके होते हैं जहां ताली बजाई जाती है। किसी समारोह में, स्कूल में, घर में आदि स्थानों पर जब भी कोई खुशी और उत्साह वाली बात होती है हम उसका ताली बजाकर अभिवादन करते हैं लेकिन ताली बजाते क्यों हैं?
काफी पुराने समय से ही ताली बजाने का प्रचलन है। भगवान की स्तुति, भक्ति, आरती आदि धर्म-कर्म के समय ताली बजाई जाती है। ताली बजाना एक व्यायाम ही है, ताली बजाने से हमारे पूरे शरीर में खिंचाव होता है, शरीर की मांसपेशियां एक्टिव हो जाती है। जोर-जोर से ताली बजाने से कुछ ही देर में पसीना आना शुरू हो जाता है और पूरे शरीर में एक उत्तेजना पैदा हो जाती है। हमारी हथेलियों में शरीर के अन्य अंगों की नसों के बिंदू होते हैं, जिन्हें एक्यूप्रेशर पाइंट कहते हैं। ताली बजाने से इन बिंदुओं पर दबाव पड़ता है और संबंधित अंगों में रक्त संचार बढ़ता है। जिससे वे बेहतर काम करने लगते हैं। एक्यूप्रेशर पद्धति में ताली बजाना बहुत अधिक लाभदायक माना गया है। इन्हीं कारणों से ताली बजाना हमारे स्वास्थ्य के बहुत लाभदायक है।
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भगवान के फोटो कहां और क्यों न लगाएं?

हमारी धार्मिक मान्यताओं में एक यह भी है कि अपने शयनकक्ष यानी बेडरूम में भगवान की कोई प्रतिमा या तस्वीर नहीं लगाई जाती। केवल स्त्री के गर्भवती होने पर बालगोपाल की तस्वीर लगाने की छूट दी गई है। आखिर क्यों भगवान की तस्वीर अपने शयनकक्ष में नहीं लगाई जा सकती है? इन तस्वीरों से ऐसा क्या प्रभाव होता है कि इन्हें लगाने की मनाही की गई है?
वास्तव में यह हमारी मानसिकता को प्रभावित कर सकता है। इस कारण भगवान की तस्वीरों को मंदिर में ही लगाने को कहा गया है, बेडरूम में नहीं। चूंकि बेडरूम हमारी नितांत निजी जिंदगी का हिस्सा है जहां हम हमारे जीवनसाथी के साथ वक्त बिताते हैं। बेडरूम से ही हमारी सेक्स लाइफ भी जुड़ी होती है। अगर यहां भगवान की तस्वीर लगाई जाए तो हमारे मनोभावों में परिवर्तन आने की आशंका रहती है। यह भी संभव है कि हमारे भीतर वैराग्य जैसे भाव जाग जाएं और हम हमारे दाम्पत्य से विमुख हो जाएं। इससे हमारी सेक्स लाइफ भी प्रभावित हो सकती है और गृहस्थी में अशांति उत्पन्न हो सकती है। इस कारण भगवान की तस्वीरों को मंदिर में ही रखने की सलाह दी जाती है।
जब स्त्री गर्भवती होते है तो गर्भ में पल रहे बच्चे में अच्छे संस्कारों के लिए बेडरूम में बाल गोपाल की तस्वीर लगाई जाती है। ताकि उसे देखकर गर्भवती महिला के मन में अच्छे विचार आएं और वह किसी भी दुर्भावना, चिंता या परेशानी से दूर रहे। मां की अच्छी मानसिकता का असर बच्चे के विकास पर पड़ता है।



शिवजी भस्म क्यों रमाते हैं?

हिंदू धर्म में शिवजी की बड़ी महिमा हैं। शिवजी का न आदि है ना ही अंत। शास्त्रों में शिवजी के स्वरूप के संबंध कई महत्वपूर्ण बातें बताई गई हैं। इनका स्वरूप सभी देवी-देवताओं से बिल्कुल भिन्न है। जहां सभी देवी-देवता दिव्य आभूषण और वस्त्रादि धारण करते हैं वहीं शिवजी ऐसा कुछ भी धारण नहीं करते, वे शरीर पर भस्म रमाते हैं, उनके आभूषण भी विचित्र हैं।
शिवजी शरीर पर भस्म क्यों रमाते हैं? इस संबंध में धार्मिक मान्यता यह है कि शिव को मृत्यु का स्वामी माना गया है और शिवजी शव के जलने के बाद बची भस्म को अपने शरीर पर धारण करते हैं। इस प्रकार शिवजी भस्म लगाकर हमें यह संदेश देते हैं कि यह हमारा यह शरीर नश्वर है और एक दिन इसी भस्म की तरह मिट्टी में विलिन हो जाएगा। अत: हमें इस नश्वर शरीर पर गर्व नहीं करना चाहिए। कोई व्यक्ति कितना भी सुंदर क्यों न हो, मृत्यु के बाद उसका शरीर इसी तरह भस्म बन जाएगा। अत: हमें किसी भी प्रकार का घमंड नहीं करना चाहिए।
इस संबंध में एक अन्य तर्क भी है कि शिवजी कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं, जहां का वातावरण अत्यंत ही ठंडा है और भस्म शरीर का आवरण का काम करती हैं। यह वस्त्रों की तरह ही उपयोगी होती है। भस्म बारिक लेकिन कठोर होती है जो हमारे शरीर की त्वचा के उन रोम छिद्रों को भर देती है जिससे सर्दी या गर्मी महसूस नहीं होती हैं। शिवजी का रहन-सहन सन्यासियों सा है। सन्यास का यही अर्थ है कि संसार से अलग प्रकृति के सानिध्य में रहना। संसारी चीजों को छोड़कर प्राकृतिक साधनों का उपयोग करना। ये भस्म उन्हीं प्राकृतिक साधनों में शामिल है।
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कौन सा ग्रंथ घर में नहीं रखते और क्यों?

ग्रंथ, धर्म शास्त्र बताते हैं कि हमें कैसा जीवन जीना चाहिए, हमारे विचार कैसे होने चाहिए, हमारे कर्तव्य और अधिकार क्या हैं, ऐसे ही कई प्रश्नों के उत्तर ग्रंथों में मिल जाते हैं। इसी वजह से सभी के लिए ग्रंथों का अध्ययन करने की सलाह दी जाती है। जीवन की कैसी भी परेशानियां हो, शास्त्रों में उनका हल दिया हुआ।
अधिकांश हिंदू परिवारों में धर्म ग्रंथ के नाम पर रामचरितमानस या फिर श्रीमद् भागवत पुराण ही मिलता है। महाभारत जिसे पांचवां वेद माना जाता है, इसे घरों में नहीं रखा जाता। बड़े-बुजुर्गों से पूछे तो जवाब मिलता है कि महाभारत घर में रखने से घर का माहौल अशांत होता है, भाइयों में झगड़े होते हैं। क्या वाकई ऐसा है? अगर यह मिथक है तो फिर हकीकत क्या है, क्यों रामायण को घर में स्थान दिया जाता है लेकिन महाभारत को नहीं।
वास्तव में महाभारत रिश्तों का ग्रंथ है। परिवारिक, सामाजिक और व्यक्तिगत रिश्तों का ग्रंथ। इस ग्रंथ में कई ऐसी बातें हैं जो सामान्य बुद्धि वाला इंसान नहीं समझ सकता। पांच भाइयों के पांच अलग-अलग पिता से लेकर एक ही महिला के पांच पति तक। सारे रिश्ते इतने बारिक बुने गए हैं कि आम आदमी जो इसकी गंभीरता और पवित्रता को नहीं समझ सकता। वह इसे व्याभिचार मान लेता है और इसी से समाज में रिश्तों का पतन हो सकता है। इसलिए भारतीय मनीषियों ने महाभारत को घर में रखने से मनाही की है क्योंकि हर व्यक्ति इस ग्रंथ में बताए गए रिश्तों की पवित्रता को समझ नहीं सकता।
इसमें जो धर्म का महत्व बताया गया है वह भी सामान्य बुद्धि से नहीं समझा जा सकता, इसके लिए गहन अध्ययन और फिर गंभीर चिंतन की आवश्यकता होती है।
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शादी के कार्ड पर श्री गणेश का चित्र क्यों ?

श्रीगणेश पूजा अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण व कल्याणकारी है। चाहे वह किसी कार्य की सफलता के लिए हो या फिर चाहे किसी कामनापूर्ति स्त्री, पुत्र, पौत्र, धन, समृद्धि के लिए या फिर अचानक ही किसी संकट मे पड़े हुए दुखों के निवारण हेतु हो। जब कभी किसी व्यक्ति को किसी अनिष्ट की आशंका हो या उसे शारीरिक या आर्थिक कष्ट उठाने पड़ रहे हो तो ऐसे में उसे श्री गणेश की आराधना करने को कहा जाता है। श्री गणेश को सभी दुखों को हरने वाला या दुखहर्ता माना गया है।
श्री गणेश बुद्धि के देवता हैं। इसीलिए श्री गणेश प्रथम पूज्य है यानि हर शुभ कार्य में गणेशजी की पूजा सबसे पहले की जाती है क्योंकि उनके स्वरूप में अध्यात्म और जीवन के गहरे रहस्य छुपे हैं। जिनसे हम जीवन प्रबंधन के सफल सूत्र हासिल कर सकते हैं।
इसी तरह श्री गणेश की छोटी आंखें मानव को जीवन में सूक्ष्म दृष्टि रखने की प्रेरणा देती हैं। उनकी बड़ी नाक (सूंड) दूर तक सूंघने में समर्थ है जो उनकी दूरदर्शिता को बताती है। जिसका अर्थ है कि उन्हें हर बात का ज्ञान है। श्री गणेश के दो दांत हैं एक पूर्ण व दूसरा अपूर्ण। पूर्ण दांत श्रद्धा का प्रतीक है तथा टूटा हुआ दांत बुद्धि का। शास्त्रों के अनुसार गणेश को विघ्रहर्ता माना जाता है। इसीलिए शादी के कार्ड पर श्री गणेश का चित्र बनवाने की परंपरा अस्तित्व में आई ताकि शादी जैसा बड़ा आयोजन श्री गणेश की कृपा से बिना किसी विघ्र के सम्पन्न हो जाए। श्री गणेश का विघ्रकर्ता का रूप जगत के प्राणियों के कार्य और व्यवहार को मर्यादा और सीमाओं में रखता है, तो विघ्रहर्ता रूप कार्य के शुभ आरंभ और उसमें आने वाली बाधाओं को दूर कर निर्विघ्र संपन्न करता है।
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क्यों रखते हैं सिर पर दुपट्टा?

सभी धर्मों की स्त्रियां दुपट्टा या साड़ी के पल्लू से अपना सिर ढंककर रखती हैं। सिर ढंककर रखना सम्मान सूचक भी माना जाता है। इसके वैज्ञानिक कारण भी है। सिर मनुष्य के अंगों में सबसे संवेदनशील स्थान होता है। ब्रह्मरंध्र सिर के बीचों-बीच स्थित होता है। मौसम का मामूली से परिवर्तन के दुष्प्रभाव ब्रह्मरंध्र के भाग से शरीर के अन्य अंगों में आतें हैं। इसके अलावा आकाशीय विद्युतीय तरंगे खुले सिर वाले व्यक्तियों के भीतर प्रवेश कर क्रोध, सिर दर्द, आंखों में कमजोरी आदि रोगों को जन्म देती है। सिर के बालों में रोग फैलाने वाले कीटाणु आसानी से चिपक जाते हैं, क्योंकि बालों की चुंबकीय शक्ति उन्हें आकर्षित करती है। रोग फैलाने वाले यह कीटाणु बालों से शरीर के भीतर प्रवेश कर जाते हैं। जिससे व्यक्ति रोगी को रोगी बनाते हैं। इसी कारण सिर और बालों को जहां तक हो सके सिर और बालों को ढककर रखना हमारी परंपरा में शामिल है। साफ , पगड़ी और अन्य साधनों से सिर ढंकने पर कान भी ढंक जाते हैं। जिससे ठंडी और गर्म हवा कान के द्वारा शरीर में प्रवेश नहीं कर पाती। कई रोगों का इससे बचाव हो जाता है। सिर ढंकने से आज का जो सबसे गंभीर रोग है गंजापन, बाल झडऩा और डेंड्रफ से आसानी से बचा जा सकता है। आज भी हिंदू धर्म में परिवार में किसी की मृत्यु पर उसके संबंधियों का मुंडन किया जाता है। ताकि मृतक शरीर से निकलने वाले रोगाणु जो उनके बालों में चिपके रहते हैं। वह नष्ट हो जाए। स्त्रियां बालों को पल्लू से ढंके रहती है। इसलिए वह रोगाणु से बच पाती है। नवजात शिशु का भी पहले ही वर्ष में इसलिए मुंडन किया जाता है ताकि गर्भ के अंदर की जो गंदगी उसके बालों में चिपकी है वह निकल जाए। मुंडन की यह प्रक्रिया अलग-अलग धर्मों में किसी न किसी रूप में है। पौराणिक कथाओं में भी नायक, उपनायक तथा खलनायक भी सिर को ढंकने के लिए मुकुट पहनते थे। यही कारण है कि हमारी परंपरा में सिर को ढकना वह स्त्री और पुरुषों सबके लिए आवश्यक किया गया था।
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आपको पता है, क्यों ना पीएं बिस्तर पर चाय!

भारतीय संस्कृति में बिस्तर पर खाना-पीना निषेध है। आपने अक्सर घर के बड़े-बुजुर्गो को कहते हुए सुना होगा कि बिस्तर पर बैठकर खाने -पीने से घर में लक्ष्मी का निवास होता है। लेकिन यह सिर्फ कोई अंधविश्वास नहीं है बल्कि इसके पीछे स्वास्थ्य से जुड़ा कारण भी है। वर्तमान समय में बढ़ती महानगरीय जीवनशैली को अपनाकर इंसान ने पुरानी सारी अच्छी आदतों और परम्पराओं को छोड़कर हानिकारक और गलत आदतों को अपना लिया है। ऐसी ही गलत आदतों में से एक आदत है- उठते ही बिस्तर पर चाय पीना या नाश्ता करना।
बेड-टी पीने से क्या और कितना बुरा प्रभाव पड़ता है, आइये उसे जाने:-
- रात भर सोने से शरीर में जो गर्मी बनती है वह चाय कॉफी पीने से और भी अधिक बढ़ जाती है, जिससे एसिडिटी और पेट की कई बीमारियां पैदा होती हैं।
- बगैर ब्रश किये और पानी पीये चाय-कॉफी जैसे धीमे जहर पीना शारीरिक और मानसिक दोनों स्तरों पर बड़ा ही घातक प्रभाव डालता है।
- जागते समय इंसान का दिमाग और मन पूरी तरह से नया होता है, ऐसे समय में यदि सबसे पहले चाय-कॉफी पीकर दिन की शुरुआत होती है तो सारा दिन थकान और कमजोरी का सामना करना पड़ता है।
- दिन की शुरुआत जैसी होगी सारा दिन भी वैसा ही गुजरता है, चाय-कॉफी जैसे नशे से दिन का प्रारंभ करने की बजाय पानी पीकर मोर्निंग वाक करने से आप पूरे दिन के लिये ऊर्जावान, कान्फीडेंट तथा सकारात्मक बने रह सकते हैं।
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शादी के कार्ड के साथ पीले चावल ही क्यों!

पीले रंग को हिन्दू धर्म में बहुत शुभ माना गया है। इसलिए जब भी कोई शादी या किसी बच्चे का जन्म होता है तो कुछ समाज में अगर महिलाएं ऐसे मौकों पर पीला रंग पहने तो उसे अच्छा माना जाता है। वैसे तो देवताओं को सभी रंग के फूल चढ़ाते हैं लेकिन पीले रंग के फूलों को विशेष महत्व दिया गया है। हिन्दू धर्म में शादी के कार्ड के ऊपर श्री गणेश का चित्र बनाने की परंपरा तो है ही साथ ही उस कार्ड के साथ पीले रंग के चावल देने का भी रिवाज है।
आजकल वैसे महानगरों में कई लोग इस परम्परा को नहीं मानते हैं लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी यह परम्परा विशेष रूप से निभाई जाती है क्योंकि गांवों में शादी के कार्ड से भी ज्यादा महत्व इन चावल को दिया जाता है विशेषकर लड़के की शादी में यदि चावल नहीं दिये जाते हैं तो माना जाता है कि उन्हें ससम्मान शादी में नहीं बुलाया गया है। यह तो बात हुई परम्परा की।
लेकिन दरअसल चावल को सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक माना जाता हैं। पीले रंग से रंगे चावल को सत्कार और शुभता का प्रतीक माना जाता है। इसलिए सबसे पहले शादी के कार्ड के साथ श्री गणेश को अर्पित किए जाते हैं। उसके बाद सभी कार्ड्स के साथ ये पीले चावल दिये जाते हैं ये चावल श्री गणेश के आर्शीवाद के साथ ही आदर पूर्वक आमंत्रण का प्रतीक है।




सुन्दर लड़कियों और बच्चों को काला टिका क्यों?

अक्सर आप ने घर के बड़े - बुढ़ो को कहते हुए सुना होगा कि शुभ कार्य में काले रंग के कपड़े नहीं पहनना चाहिए या काला रंग अशुभ होता है। इसलिए जहां तक हो सके काले रंग के कपड़ों का उपयोग शादी में पूजा- पाठ में नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि काले रंग को नकारात्मकता का प्रतीक माना जाता है। लेकिन जब बुरी नजर या किसी तरह की नजर उतारने की बात आती है तो काले रंग का ही उपयोग किया जाता है। जब कोई नया मकान बनाया जाता है तो उस पर काले रंग का मटका लगाया जाता है।वो कहते हैं ना कि लोहा ही लोहे को काटता है।
वैसे ही नकारात्मकता का प्रतीक होने के कारण ही ऐसा माना जाता है कि काला रंग नकारात्मकता का अवशोषण कर लेता है। इसलिए देखने में आता है कि छोटे-छोटे बच्चों और सुंदर लड़कियों को चेहरे पर कहीं ना कहीं काला टिका लगा होता है। काला टिका लगाने की परंपरा के पीछे यही वजह है कि सुंदरता की ओर सभी जल्दी ही आकर्षित हो जाते हैं और कुछ लोग सुंदर चेहरे को एकटक देखते रहते हैं।
उनकी ऐसी नजरों से बच्चे या सुंदर लड़कियों पर दुष्प्रभाव पड़ते हैं। काला टिका लगाने से एकटक देखने वाले की नजर काला रंग पर टिक जाती है जिससे उनकी नजर का बुरा प्रभाव नष्ट हो जाता है।
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घर में भगवान की तस्वीर जरूरी क्यों?

हर घर में भगवान की तस्वीरें होती ही हैं। धर्म चाहे कोई भी हो घर में धार्मिक प्रतीक रखना सभी धर्मों में शुभ माना जाता है। हिंदू के घर देवी-देवताओं की, मुस्लिम के घर मक्का-मदीना, सिखों के घर वाहे गुरु तो इसाई परिवारों में जीसस क्राइस्ट की तस्वीरें मिलती हैं। कभी सोचा है आखिर घरों में भगवानों की ये तस्वीरें लगाई ही क्यों जाती हैं? यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है भगवान की तस्वीरें जहां भी लगाई जाएं वे सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती हैं।
वास्तुशास्त्र के अनुसार घर में छोटे-छोटे बदलाव करके आप अद्भुत मानसिक शांति महसुस कर सकते है। घर में देवी-देवताओं की तस्वीर तो सभी लगाते है। देवताओं की सही दिशा में सही तस्वीर लगाकर कोई भी अपना जीवन सुख-समृद्धि से पूर्ण बना सकता हैं
हम उन्हें देखकर ही यह एहसास कर लेते हैं कि भगवान सब ठीक कर देगा। ये तस्वीरें अप्रत्यक्ष रूप से हमें आत्मबल प्रदान करती हैं। दूसरा कारण है कि पुराने जमाने के लोगों ने यह परिपाटी शुरू की थी। इसके पीछे कारण था कि जब तक भगवान हमारे सामने रहेंगे हम अनैतिक कार्यो से दूर रहने का प्रयास करेंगे। पाप-पुण्य के भय से आदमी गलत काम नहीं करता है। इस तरह ये तस्वीरें हमें शक्ति प्रदान करती हैं गलत को छोडऩे और सही राह पर चलने की।
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शादी का पहला कार्ड किसे और क्यों?

भारतीय परंपरा में हर काम की शुरुआत में गणपति को पहले मनाया जाता है। शिक्षा से लेकर नए वाहन तक, व्यापार से लेकर विवाह तक हर काम में पहले गणपति को ही आमंत्रित किया जाता है। ऐसा कौन सा कारण है कि हम गणपति के बिना कोई काम नहीं कर सकते? आखिर किस कारण से गणपति को पहले पूजा जाता है? गणपति को पहले पूजे जाने के पीछे बड़ा ही दार्शनिक कारण है, हम इसकी ओर ध्यान नहीं देते कि इस बात के पीछे संदेश क्या है। दरअसल गणपति बुद्धि और विवेक के देवता है।
बुद्धि से ही विवेक आता है और जब दोनों साथ हों तो कोई भी काम किया जाए उसमें सफलता मिलना निश्चित है। हम जब गणपति को पूजते हैं तो यह आशीर्वाद मांगते हैं कि हमारी बुद्धि स्वस्थ्य रहे और हम सही वक्त पर सही निर्णय लेते रहे ताकि हमारा हर काम सफल हो।
इसके पीछे संदेश यही है कि आप जब भी कोई काम शुरू करें अपनी बुद्धि को स्थिर रखें, इसलिए गणपति जी का चित्र भी कार्ड पर बनाया जाता है साथ ही गणेश जी को विघ्रहर्ता भी कहा जाता है शादी जैसा बड़ा आयोजन बिना किसी विघ्र के सम्पन्न हो जाए इसलिए सबसे पहले श्री गणेश को पीला चावल और लड्डू का भोग अर्पित कर पूरा परिवार एकत्रित होकर उनसे शादी में पधारने के लिए प्रार्थना करता है ताकि शादी में सभी गजानन की कृपा से खुश रहें।
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सिर की मालिश जरूरी है क्योंकि...

हिंदू धर्म ग्रंथों ने जितना धर्म के बारे में लिखा है उतना ही मनुष्य की दिनचर्या और रहन-सहन के नियम भी बनाएं हैं। सुबह जागने से रात को सोने तक लगभग हर काम के कुछ नियम तय किए गए हैं। इनमें ही एक नियम है सिर की मालिश का। इसके लिए न केवल विधि दी गई है बल्कि कुछ विद्वानों ने तो माना है कि सिर की मालिश करते समय कुछ मंत्र भी गुनगुनाने चाहिए।
प्रतिदिन तेल मालिश एक ऐसा अचूक उपाय है जिससे बाल चमकदार और सुंदर बने रहते हैं। साथ ही सिर की त्वचा संबंधी बीमारियां से भी बचाव होता है। भारतीय संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति की दिनचर्या इस तरह निर्धारित की गई है कि उनसे हमारा तन और मन दोनों प्रसन्न होते हैं जिनके बल पर धन भी खूब अर्जित कर सकते हैं। तेल से मालिश की दिनचर्या के पीछे भी यही दृष्टिकोण है। ऐसा कहते है कि इससे हम युवा बने रहते हैं। शास्त्रों के अनुसार अगर इस दिनचर्या का पालन नियमित रूप से किया जाए तो बुढ़ापा समय से पहले नहीं आता और यह मनुष्य शरीर को निरोग रखने की एक वैज्ञानिक क्रिया है। प्रतिदिन तेल मालिश करना चाहिए। इससे बुढ़ापा, थकान और वायु रोगों नहीं होते। आंखों की ज्योति तेज होती है और नींद भी अच्छी आती है। बाल भी सुन्दर होने से शरीर का सौन्दर्य निखरता है। डेंड्रफ भी नहीं होती साथ ही बाल भी स्वस्थ रहते हैं।
विज्ञान के अनुसार हमारे सिर पर असंख्य छिद्र होते हैं। यह छिद्र शरीर से प्रदूषित वायु गैस के रूप में बाहर निकालते हैं। प्रतिदिन सफाई के अभाव में यह छिद्र बंद हो जाते हैं। सिर की मालिश से मानसिक शांति तो मिलती ही है साथ ही मस्तिष्क की सारे नसों में रक्तसंचरण तेज हो जाता है। यदि यह छिद्र बंद हो जाए तो हम कई बीमारियों की पकड़ में आ सकते हैं। इससे बचने के लिए हमें प्रतिदिन सिर की मालिश कर नहाना चाहिए। जिससे से छिद्र हमेशा खुले रहेंगे और आप तनाव से राहत के साथ ही नई स्फूर्ति का एहसास करेंगे।
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अग्रि के चारों ओर ही सात फेरे क्यों?

कहते हैं शादी वह पवित्र बंधन है जिसमें दो दिलों को मेल होता है। शादी सिर्फ शारीरिक रूप स ही नहीं बल्कि भावनात्मक रूप से भी जोड़ती है। इसमें न केवल दो व्यक्ति बल्कि दो समाज मिलते हैं। शायद इसलिए शादी को सामाजिक रूप दिया गया है। शादी के पवित्र बंधन में बंधने के बाद दो जुदा लोग एक साथ अपनी जिंदगी की शुरुआत करते हैं। जाहिर सी बात है जब दो समाज या समुदाय शादी के पवित्र बंधन के कारण एक होते हैं तो उनमें बहुत से वैचारिक या सैद्धान्तिक मतभेद होते हैं। दोनों के रीति-रिवाज काफी अलग होते हैं लेकिन अग्रि के समक्ष फेरे लेने का रिवाज सभी हिन्दू समुदायों में समान है।
हिन्दू मान्यता के अनुसार बिना अग्रि के सामने सात फेरे लिए विवाह की रस्म पूरी नहीं होती है। अग्रि, पृथ्वी, जल, वायु, और आकाश इन पांच तत्वों से मनुष्य की उत्पति मानी गई हैं। अग्रि को सबसे पवित्र माना जाती है। अग्रि समभाव का प्रतीक है। अग्रि हर जगह पर समान रूप से जलती है वह सबके लिए समान है। वहीं दूसरी ओर उसका सबसे बड़ा गुण यह माना जाता है कि वह यज्ञ में दी गई एक आहूति को सहस्त्र गुना करके लौटाती है। शादी को जन्मों का रिश्ता होता है।
वर-वधु पवित्र अग्रि के समक्ष सात-फेरे लेकर उसके ही समान एक-दूसरे के प्रति समभाव और समर्पण की भावना रखें। अग्रि कभी अपवित्र नहीं होती है। विवाहित जोड़ा हर हाल में अग्रि के सामने एक-दूसरे को दिए सातों वचनों को निभाएं। अग्रि को ऊर्जा का प्रतीक माना गया है पति-पत्नी अपना पूरा जीवन पूरे उत्साह और ऊर्जा के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करें इन्ही सभी कारणों से अग्रि के समक्ष सात फेरे लेने की परम्परा बनाई गई है।
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पूजा में फल क्यों चढ़ाए जाते हैं?

पूजन में देवी-देवताओं को नैवेद्य के बाद फल चढ़ाए जाते हैं। फल पूर्णता का प्रतीक है। फल चढ़ाकर हम अपने जीवन को सफल बनाने की कामना भगवान से करते हैं। मौसम के अनुसार पांच प्रकार के फल भगवान को चढ़ाए जाते हैं। शक्ति अनुसार कम भी चढ़ा सकते हैं। फल पूर्ण मीठे, रसदार, रंग और सुगंध से पूर्ण होते हैं।
फल चढ़ाने का मनोविज्ञान यह है कि हम भी रसदार, मीठे, नया रंग से भरा जीवन जिएं और सफल होवें। जीवन में अच्छे कर्म करें। फल जैसे सद्गुणों की खान है। वैसे ही हम भी बनें। क्योंकि अच्छे कार्य का फल अच्छा ही होता है। फल भगवान को अर्पित करते समय यह भावना भी रहती है कि- हे ईश्वर, मैं यह छिद्र रहित मीठे रस से भरा फल आपको अर्पण कर रहा हूँ। अत: आप भी मेरा जीवन मीठे रस से भर दें और कहीं से भी मेरे घर में दुख का प्रवेश न हो ऐसी मुझ पर कृपा करें।
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क्यों जरूरी है दुल्हन अपनी चप्पल तोड़े!

जिंदगी में विवाह एक बेहद महत्वपूर्ण घटना है। जब दो इंसान जीवन भर साथ में मिलकर धर्म के रास्ते से जीवन लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास करते हैं।शादी में हर परिस्थिति में एक -दूसरे का साथ निभाने का संकल्प लिया जाता है। शादी के इस बंधन से दो दिलों का नहीं बल्कि दो परिवारों का मिलन होता है। हिन्दू शादी में कई महत्वपूर्ण परम्पराएं होती हैं जिनका निर्वाह करना जरूरी माना जाता है।
ऐसी ही एक परम्परा है जिसेहर दुल्हन को निभाना पड़ता है वह परम्परा है शादी में ससुराल से उपहार में आई चप्पल को शादी का एक महीना पूरा होने से पहले तोडऩा। यदि शादी की चप्पल को वधु एक महीने के भीतर नहीं तोड़ पाती है तो अच्छा नहीं माना जाता है। आजकल अधिकांश लोग इस रिवाज को एक अंधविश्वास मानते हैं लेकिन हमारी हर परम्परा के पीछे एक गहरी सोच छूपी होती है। इस परम्परा का कारण यह है कि दूल्हन की चप्पल को दरअसल अहंकार का प्रतीक माना जाता है।
जब नई दुल्हन शादी के बाद घर में आती है तो घर के बड़े लोग नई दुल्हन को कहते हैं कि उसे उपहार में दी गई चप्पल जल्दी से जल्दी तोडऩा है क्योंकि यह उसके ससुराल वालों के लिए एक अच्छा शकुन होगा। फिर यदि दुल्हन जल्दी ही उन चप्पलों को तोड़ देती है तो उसे संस्कारी ओर जल्द ही परिवार से घुलमिल जाने वाली माना जाता है।
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शनि के लिए घोड़े के नॉल की अंगुठी ही क्यों?

कुछ लोग हमेशा परेशानियों से घिरे होते है, उनके घर में हमेशा अशांति बनी रहती है। घर के सदस्य अक्सर बीमार रहते है, जीवनसाथी से नही बनती। परिवार में ऐसा ही कुछ नकारात्मक वातावरण हमेशा बना रहता है तो समझ लिजीए आप पर शनि के अशुभ प्रभाव पड़ रहा है और भी कुछ छोटी छोटी बातें हैं जो शनि के अशुभ होने पर होती है। दिनों दिन ऋण, लोन, उधार बढ़ता जाए तो समझे शनि अशुभ है।शनि को न्याय का देव माना गया है। सभी राशि वालों पर शनि देव का शुभ और अशुभ प्रभाव रहता है।
वैसे तो शनि के शुभ और अशुभ प्रभावों के लिए कई प्रयोग और उपाय किए जाते है लेकिन सबसे अधिक प्रचलित और कारगर उपाय माना जाता है काले घोड़े की नॉल की अंगुठी। दरअसल इस परंपरा के पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि काले घोड़े को शनि का रूप माना गया है और शरीर पर शनि का विशेष प्रभाव पैरों पर होता है। इसलिए शनि देव की मेहनत करने वालों पर विशेष कृपा रहती है और घोड़ा सबसे ज्यादा मेहनत अपने पैरों से करता है इसलिए उसके नॉल की अंगुठी धारण करने से शनि का अशुभ प्रभाव कम हो जाता है ऐसी मान्यता है।
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नई दुल्हन से मीठा बनवाने की रस्म क्यों?

नव वधू जब शादी के बाद पहली बार ससुराल आती है तो उससे जुड़े अनेक रिवाज है जिनका पालन करना जरूरी माना गया है। इन रस्मों को वधू के हाथ से सम्पन्न करवाना एक अच्छा शकुन माना जाता है। ऐसी ही एक रस्म है नई दुल्हन से मीठा बनवाने की। वधू के ससुराल में प्रवेश से कुछ समय बाद ही विधि पूर्वक उसे रसोई में एक निश्चित मुर्हूत्त में खाना बनाने के लिए भेजा जाता है। आश्चर्यजनक बात है कि खाने में सबसे पहले कुछ मीठा बनवाया जाता है और घर के प्रत्येक वरिष्ठ सदस्य वधू को शगुन के रूप में कुछ ना कुछ उपहार अवश्य देता है।
मीठा बनवाने के पीछे संभवत: यही धारणा रही होगी कि नए परिवेश में आकर रिश्तों की मिठास बनाए रखने की प्रेरणा वधू को मिले और उपहार देने के पीछे भी संभवत: यही तथ्य है कि सामंजस्य और रिश्तों को निभाने की भावना लगातार बनी रहे और बहू अपने उत्तरदायित्व को यहीं समझ लें और परिवार की मान्यताओं और वरिष्ठ सदस्यों के प्रति सम्मान से भरी रहे।
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पूजा में नारियल क्यों ?

नारियल को शुद्धता और पवित्रता का प्रतीक माना जाता है। घर में कोई भी त्यौहार हो या किसी विशेष पूजा का अवसर हो तो नारियल जरूर चढ़ाया जाता है। पूजन में नारियल का प्रयोग लक्ष्मीजी के रूप में होता है। नारियल को श्रीफल भी कहा जाता है। धन अर्पित करने की हमारी शक्ति नहीं परंतु प्रतिक रूप से हम भगवान को श्रीफल अर्पित करते हैं।
जिससे धन का अहंकार हमारे भीतर से निकल जाए और हम नारियल के भीतर की तरह श्वेत, कोमल और दोषरहित हो जाए। नारियल ऊपर से जितना कठोर होता है अंदर से उतना मुलायम। जिसका स्वाद सभी को अच्छा लगने वाला है।
पूजा में नारियल क्यों अर्पित किया जाता है? इसके कई कारण हैं... जैसे नारियल का जल मीठा और स्वास्थ्यवर्धक और बलदायक होता है उसी को हम प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं। रुद्ररूप से भी नारियल का पूजन किया जाता है। रुद्र हमारे गर्व का हनन करते हैं। इसलिए किसी-किसी पूजन में नारियल को बधार कर हम प्रतिक रूप से हमारे मान, गर्व भगवान के चरणों में समर्पित कर देते है।
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क्यों की जाती है शादी में कचरे के ढेर की पूजा?

शादी में सिर्फ दूल्हा-दुल्हन ही नहीं बल्कि दोनों के परिवार का हर सदस्य उत्साह और उमंग के साथ खुशियां मनाता है। शादी से कई पारंपरिक रीति-रिवाज जुड़े हैं। इन्ही रिवाजो में कुछ रिवाज ऐसे होते हैं जो सुनने में बड़े अजीब लगते हैं और आजकल के अधिकांश युवा उन्हे अंधविश्वास से ज्यादा कुछ नहीं मानते। लेकिन हमारे पूर्वजो ने कोई परंपरा बिना कारण के नहीं बनाई है हमारी हर परंपरा के पीछे एक गहरी सोच है।ऐसी ही एक परंपरा है शादी में कचरे के ढेर के पूजन की।
ऐसा माना जाता है कि कचरे के ढेर का पूजन करने से वर-वधु में शादी के बाद अच्छा आपसी तालमेल होता है। दरअसल जिस तरह कचरे का ढेर बिना किसी तरह का अंतर किए जो भी कचरा उस पर फेंका जाता है उसे अपना लेता है। ठीक उसी तरह वर और वधु एक-दूसरे के गुण-अवगुण पर ध्यान देने की बजाए एक -दूसरे के रंग में रंग जाए। दोनों एक दूसरे को दिल से अपनाएं इसी सोच के साथ कचरे के ढेर की पूजा की जाती है।
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मां सरस्वती का पूजन वसंत पंचमी पर ही क्यों? कहते हैं जब ब्रह्मा ने जब विष्णु की आज्ञा से सृष्टी की रचना की विशेषकर मनुष्यों की रचना के बाद जब ब्रम्हा ने अपनी रचना को देखा था तो उन्हें लगता था कि कुछ कमी रह गई है जिसके कारण चारों और मौन छाया रहता है। विष्णु से अनुमति लेकर जब उन्होने एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का था जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था। अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी।
ब्रह्मा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया। जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में जैसे चेतना आ गई। पवन चलने से सरसराहट होने लगी।तब ब्रह्मा ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती कहा।
सरस्वती को भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। बसन्त पंचमी के दिन को इनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन किया गया है। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने सरस्वती से ख़ुश होकर उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जाएगी। वसंत पंचमी का दिन मां सरस्वती का जन्मदिन माना जाता है इसीलिए इस दिन उनकी आराधना की जाती है।
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क्यों बनवाएं नई दुल्हन से कुमकुम के पैर?

शादी एक ऐसा मौका होता है जब दो इंसानो के साथ-साथ दो परिवारों का जीवन भी पूरी तरह बदल जाता है। ऐसे में विवाह संबंधी सभी कार्य पूरी सावधानी और शुभ मुहूर्त देखकर ही किए जाते हैं। विवाह की सभी रस्में अच्छे से हो जाने पर अंत में सबसे महत्वपूर्ण रस्म होती हैं वर-वधु के गृह प्रवेश की।
गृहप्रवेश की रस्म में सबसे महत्वपूर्ण रस्म होती है दुल्हन से कुमकुम के पैर बनवाने की दरअसल इस रस्म के पीछे भी हमारे पूर्वजों की बहुत गहरी सोच छूपी है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार कहा जाता है। यत्र नारी पुज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता
मतलब जहां नारी को सम्मान दिया जाता है उसकी पूजा की जाती है वहां देवताओं का निवास होता है। इसी कारण नई दुल्हन को लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है कहा जाता है कि थाली में कुमकुम रखकर दुल्हन के गृहप्रवेश के समय उसके पैर बनवाने से घर में लक्ष्मी के स्थाई निवास के साथ ही हमेशा सुख व समृद्धि बनी रहती है।
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शादी के बाद मंगलसूत्र क्यों ?

हिन्दू परंपरा के अनुसार शादी के बाद महिलाओं को बहुत सी श्रृंगार सामग्री लगाना और गहने पहनना अनिवार्य माना गया है। मंगलसुत्र उन्ही में से एक है। मंगलसुत्र वैसे विशेषकर महाराष्ट्र में मंगलसूत्र पहनने की परम्परा है। हर समाज में इसे पहनना जरूरी नहीं माना गया है।धागे में पिरोए काले मोती और सोने का पेंडिल से बना मंगलसूत्र पहनना विवाहित स्त्री के अनिवार्य बताया गया है। इसकी तुलना किसी अन्य आभूषण से नहीं की जाती। प्राचीन काल से मंगलसूत्र की बड़ी महिमा बताई गई है। हर स्त्री को मंगलसूत्र विवाह पर पति द्वारा पहनाया जाता है जिसे वह स्त्री पति की मृत्यु पर ही उतार कर पति को अर्पित करती है।
उसके पूर्व किसी भी परिस्थिति में मंगलसूत्र स्त्री उतारना मना है। इसका खोना या टूटना अपशकुन माना गया है। साथ ही इसे पति की कुशलता से भी जोड़ा गया है। इसी वजह से विवाहित महिलाओं के लिए मंगलसूत्र पहनना अनिवार्य माना गया है।
यह तो हुआ मंगलसूत्र का धार्मिक महत्व परंतु मंगलसूत्र की अनिवार्यता के कुछ अन्य कारण भी है। विवाहित स्त्री जहां जाती है वहां वह आकर्षण का केंद्र होती है। सभी की अच्छी-बुरी नजरें उसी की ओर होती हैं। ऐसे में मंगलसूत्र के काले मोती उसे बुरी नजर से बचाते हैं। वहीं उसमें लगे सोने के पेंडिल का भी विशेष महत्व है। चूंकि सोना तेज और ऊर्जा का प्रतीक है। इसी लिए सोने के पेंडिल से स्त्री में तेज और ऊर्जा का संचार बना रहता है। इन्हीं वजह से मंगलसूत्र को विवाहित स्त्रियों के लिए अनिवार्य बताया गया है।
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हल्दी लगाकर बाहर ना निकले, परंपरा या डर?

हिन्दू परंपरा के अनुसार की जाने वाली शादी में कई रस्म और रिवाज होते हैं। जिसके बाद ही शादी सम्पंन मानी जाती है। इन परंपराओं और रीति-रिवाजों में भी कई परंपराएं ऐसी हैं जिन्हें लेकर हमारे मन में एक अजीब सा डर समाया हुआ है। ऐसी ही एक परंपरा है हल्दी लगने के बाद दूल्हा या दुल्हन को बाहर नहीं निकलने देने का जब भी आपके घर में या आस पड़ोस में कभी शादी हुई होगी तो आपने ये जरुर सुना होगा कि दूल्हा या दुल्हन को हल्दी लग गई है, अब उसे अकेला नहीं छोड़ सकते या हल्दी लगने के बाद में बाहर नहीं निकलना चाहिये नहीं तो बुरी आत्माओं का साया पड़ सकता है।
वास्तव में इस मान्यता के पीछे कोई अंधविश्वास नहीं है क्योंकि हमारे बड़े-बुजुर्ग हम से ज्यादा उम्र दराज और जिन्दगी का अनुभव लिए हुए होते हैं और वे जानते थे कि हल्दी से शरीर की सुंदरता बढ़ती है और हर तरह के चर्म रोग तन की दुर्गंध से भी निजात मिलने के साथ ही रूप निखर आता है,लेकिन हल्दी लगाने के बाद बाहर ना निकलने के कई कारण हैं जैसे हल्दी में एक विशेष तरह की गंध होती है। जिसके कारण वातावरण में उपस्थित नकारात्मक और सकारात्मक सभी तरह की ऊर्जाएं उस व्यक्ति की तरफ तेजी से आकर्षित होती है।
ऐसे में व्यक्ति मानसिक या शारीरिक रुप से मजबूत नहीं होता है, तो नकारात्मक ऊर्जा उसे प्रभावित करती है। जिससे उसकी सोच में नेगेटीविटी सकती है। दूसरा कारण यह है कि हल्दी लगाने के बाद यदि घूमने जाएं तो त्वचा पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है।
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शाम के समय घर में ना रखें अंधेरा क्योंकि


आपने बड़े-बुजुर्गो को अक्सर कहते सुना होगा कि शाम के समय घर में अंधेरा नहीं रखना चाहिए क्योंकि सूर्यास्त का समय या संध्या का समय शास्त्रों के अनुसार भगवान की आराधना का समय माना गया है।
धर्म की लगभग हर एक प्रसिद्ध पुस्तक में संध्या पूजन का विशेष महत्व बताया गया है।साथ ही संध्या के समय घर में दीपक लगाना या प्रकाश करना भी आवश्यक माना जाता है। संध्या का शाब्दिक अर्थ संधि का समय है यानि जहां दिन का समापन और रात शुरू होती है, उसे संधिकाल कहा जाता है। ज्योतिष के अनुसार दिनमान को तीन भागों में बांटा गया है- प्रात:काल, मध्याह्नकाल और सायंकाल।
संध्या पूजन के लिए प्रात:काल का समय सूर्योदय से छह घटी तक, मध्याह्न 12 घटी तक तथा सायंकाल 20 घटी तक जाना जाता है। एक घटी में 24 मिनट होते हैं। प्रात:काल में तारों के रहते हुए, मध्याह्नï में जब सूर्य मध्य में हो तथा सायं सूर्यास्त के पहले संध्या करना चाहिए। संध्या से तात्पर्य पूजा या भगवान को याद करने से हैं शास्त्रों की मान्यता है कि नियमपूर्वक संध्या करने से पापरहित होकर ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।
रात या दिन में हम से जाने अनजाने जो बुरे काम हो जाते हैं, वे त्रिकाल संध्या से नष्ट हो जाते है। घर में संध्या के दीपक जलाना या प्रकाश रखना आवश्यक माना गया है क्योंकि घर में शाम के समय अंधेरा रखने पर घर में नकारात्मक ऊर्जा का स्थाई निवास होता है। घर में बरकत नहीं रहती और घर में अलक्ष्मी का वास होता है। इसलिए शाम को घर में अंधेरा नहीं रखना चाहिए।
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खाना सीधे हाथ से ही क्यों खाते हैं?

कहते हैं खाना हमेशा सीधे हाथ से खाना चाहिए लेकिन क्यों करना चाहिए ये कोई नहीं बताता। दरअसल इसका कारण यह है कि सीधे हाथ का सभी धार्मिक कार्य में विशेष महत्व है क्योंकि धर्म शास्त्रों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि हमारे शरीर का बायां भाग स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करता है और दायां भाग पुरुषों का। इस बात की पुष्टि शिवजी के अद्र्धनारीश्वर स्वरूप से की जा सकती है।
शिवजी के इस रूप में दाएं भाग में स्वयं शिवजी और बाएं भाग में माता पार्वती को दर्शाया जाता है।
धर्म से संबंधित सभी कार्य पुरुषों से कराए जाने की बात हमेशा से ही कही जाती रही है। दान सीधे हाथ से करना चाहिए इस बात के लिए एक और तर्क यह है कि हम पवित्र कार्य के लिए सदैव सीधे हाथ का ही उपयोग करते हैं।
हवन या यज्ञ भी हमेशा सीधे हाथ से कहा जाता है। भोजन करना भी एक तरह का हवन है जो हम अपने शरीर के लिए करते हैं। दक्षिण हाथ हमेशा सकारात्मक कार्यो के लिए उपयोग किया जाता है। खाने से हमें ऊर्जा मिलती है लेकिन यदि हम सीधे हाथ से भोजन करें तो हमारे शरीर को जो ऊर्जा मिलती है वह सकारात्मक रूप में होती है और हम अपने हर कार्य को पूरी ऊर्जा के साथ कर पाते हैं।
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बुरी नजर के लिए नींबु मिर्च क्यों?

दुकानों और बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों पर व्यापारी नींबू-मिर्च टांगकर रखते हैं। ऐसा केवल अपने व्यापार को बुरी नजर से बचाने के लिए किया जाता है। सवाल यह है कि नींबू और मिर्च में ऐसा क्या होता है जो नजर से बचाता है? दरअसल इसके दो कारण प्रमुख हैं, एक तंत्र-मंत्र से जुड़ा है और दूसरा मनोविज्ञान से। माना जाता है कि नींबू, तरबूज, सफेद कद्दू और मिर्च का तंत्र और टोटकों में विशेष उपयोग किया जाता है। नींबू का उपयोग अमूमन बुरी नजर से संबंधित मामलों में ही किया जाता है। इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण है इनका स्वाद। नींबू खट्टा और मिर्च तीखी होती है, दोनों का यह गुण व्यक्ति की एकाग्रता और ध्यान को तोडऩे में सहायक हैं।
यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि हम इमली, नींबू जैसी चीजों को देखते हैं तो स्वत: ही इनके स्वाद का अहसास हमें अपनी जुबान पर होने लगता है, जिससे हमारा ध्यान अन्य चीजों से हटकर केवल इन्हीं पर आकर टिक जाता है। किसी की नजर तभी किसी दुकान या बच्चे पर लगती है जब वह एकाग्र होकर एकटक उसे ही देखे, नींबू-मिर्च टांगने से देखने वाले का ध्यान इन पर टिकता है और उसकी एकाग्रता भंग हो जाती है। ऐसे में व्यापार पर बुरी नजर का असर नहीं होता है।
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श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को सुनाई अचला सप्तमी की कथा

एक बार राजा युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा- भगवान आपने माघ स्नान का महत्व तथा उसका फल तो बताया लेकिन यदि कोई मनुष्य यह कर पाने में असमर्थ हो तो वह क्या करे? तब श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया- यदि कोई माघ स्नान करने में असमर्थ हो तो वह अचला सप्तमी का व्रत तथा स्नान कर उत्तम फल प्राप्त कर सकता है। इस संबंध में कथा इस प्रकार है-
मगध देश में इन्दुमती नाम की एक वैश्या रहती थी। एक दिन उसने सोचा कि यह संसार तो नश्वर है फिर किस प्रकार यहां रहते हुए मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है? यह सोच कर वह वेश्या महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में चली गई और उनसे कहा- मैंने अपने जीवन में कभी कोई दान, तप, जप, उपवास आदि नहीं किए हैं। आप मुझे कोई ऐसा व्रत बतालाएं जिससे मेरा उद्धार हो सके। तब वसिष्ठजी ने उसे अचला सप्तमी स्नान व्रत की विधि बतलाई। वैश्या ने विधि-विधान पूर्वक अचला सप्तमी का व्रत स्नान किया, जिसके प्रभाव से वह वैश्या बहुत दिनों तक सांसारिक सुखों का उपभोग करती हुई वह देहत्याग के पश्चात देवराज इंद्र की सभी अप्सराओं में प्रधान नायिका बनी।
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इस प्रकार करें अचला सप्तमी व्रत

माघ मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को अचला सप्तमी व्रत किया जाता है। इस व्रत की विधि स्वयं श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताई है। इस बार यह व्रत 10 फरवरी गुरुवार को है।
व्रत विधि
माघ मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को एक समय भोजन सूर्यनारायण का पूजन करें। सप्तमी को सुबह जल्दी उठकर नदी या सरोवर पर जाकर स्नान करें। सोने, चांदी अथवा तांबे के पात्र में कुसुंभ की रंगी हुई बत्ती और तिल का तेल डालकर दीपक जलाएं। दीपक को सिर पर रखकर ह्रदय में भगवान सूर्य का इस प्रकार ध्यान करें-

नमस्ते रुद्ररूपाय रसानाम्पतये नम:
वरुणाय नमस्तेस्तु हरिवास नमोस्तु ते।।
यावज्जन्म कृतं पापं मया जन्मसु सप्तसु।
तन्मे रोगं शोकं माकरी हन्तु सप्तमी।
जननी सर्वभूतानां सप्तमी सप्तसप्तिके।
सर्वव्याधिहरे देवि नमस्ते रविमण्डले।।

(
उत्तरपर्व 53/33-35)
इसके बाद दीपक को नदी में बहा दें फिर स्नानकर देवताओं पितरों का तर्पण करें और चंदन से कर्णिकासहित अष्टदल कमल बनाएं। उस कमल के मध्य में शिव-पार्वती की स्थापना कर प्रणव-मंत्र से पूजा करें और पूर्वादि आठ दलों में क्रम से भानु, रवि, विवस्वान्, भास्कर, सविता, अर्क, सहस्त्रकिरण तता सर्वात्मा का पूजन करें। इन नामों के आदि में ऊँ कार, चतुर्थी विभक्ति तथा अंत में नम: पद लगाएं। इसके बाद ऊँ भानवे नम:, ऊँ रवये नम: इत्यादि।
इस प्रकार पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य तथा वस्त्र आदि उपचारों से विधिपूर्वक भगवान सूर्य की पूजा कर- स्वस्थानं गम्यताम्- यह कहकर विसर्जित कर दें। बाद में तांबें अथवा मिट्टी के पात्र में गुड़ और घी सहित तिल का चूर्ण तथा सोने का तालपत्राकार एक कान का आभूषण बनाकर बर्तन में रख दें। इसके बाद लाल कपड़े से ढंककर पुष्प-धूप आदि से पूजन करें और वह बर्तन योग्य ब्राह्मण को दान कर दें। फिर सपुत्रपशुभृत्याय मेर्कोयं प्रीयताम् (पुत्र, पशु, भृत्य समन्वित मेरे ऊपर भगवान सूर्य मेरे ऊपर प्रसन्न हो जाएं) ऐसी प्रार्थना करें।
फिर गुरु को वस्त्र, तिल, गो और दक्षिणा देकर तथा शक्ति के अनुसार अन्य ब्राह्मणों को भोजन कराकर व्रत का समापन करें।
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