ओमनाथ गौदारा धांधलास जालप

ॐ नमः शिवाय:

ओमनाथ गौदारा

गाँव - धांधलास जालप, रलियावता रोड धड़ी,

तहसील - मेड़ता सीटी, जिला - नागौर, राजस्थान -341510

Sunday 26 August 2012

परम्परा 2


आपको पता है क्यों होते हैं लड़कियों के लंबे बाल

घने काले लम्बे बाल किसी भी लड़की के सौन्दर्य में चार चांद लगा देते हैं। लेकिन वर्तमान में बालों को कटवाने का चलन तेजी से बढ़ा है।
अपने घर के बुजुर्गो को आपने कहते सुना होगा कि लड़कियों के तो लम्बे बाल ही अच्छे रहते हैं दरअसल भारतीय परंपरा के अनुसार स्त्री को लम्बे बाल रखना अनिवार्य माना गया है क्योंकि हमारी संस्कृति में बालों को सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। साथ ही लम्बे बालों वाली स्त्री को देवी रूप माना जाता है।
लम्बे बाल रखने पीछे एक वैज्ञानिक कारण भी है वह यह कि महिलाओं का सिर पुरूषों की तुलना में अधिक कोमल होता है। जिस स्थान पर चोंटी रखने की परंपरा है, वहा पर सिर के बीचों-बीच सुषुम्ना नाड़ी का स्थान होता है।
शरीर विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि सुषुम्रा नाड़ी इंसान के हर तरह के विकास में बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। चोटी सुषुम्रा नाड़ी को हानिकारक प्रभावों से तो बचाती ही है, साथ में ब्रह्माण्ड से आने वाले सकारात्मक तथा आध्यात्मिक विचारों को केच यानि कि ग्रहण भी करती है।
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घूंघट की परंपरा कब से और क्यों?

घूंघट भारतीय परंपरा में अनुशासन और सम्मान का प्रतीक माना जाता है। घर की बहुओं को परिवार के बड़ों के आगे घूंघट निकालना होता है, ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह अनिवार्य है ही साथ ही कई महानगरीय परिवारों में भी ऐसा चलन है। सवाल यह है कि भारतीय परंपरा में घूंघट कब और कैसे आया? क्या सनातन समय से यह परंपरा चली आ रही है या फिर कालांतर में यह प्रचलन बढ़ा है?वास्तव में घूंघट हिंदुस्तान पर आक्रमण करने वाले आक्रमणकारियों की ही देन है। पहले राज्यों में आपसी लड़ाइयां और फिर मुगलों का हमला।
इन दो कारणों ने भारत में पूजनीय दर्जा पाने वाले महिला वर्ग को पर्दे के पीछे कर दिया। भारतीय महिलाओं की सुंदरता से प्रभावित आक्रमणकारी अत्याचारी होते जा रहे थे। महिलाओं के साथ बलात्कार और अपहरण की घटनाएं बढऩे लगीं तो महिलाओं की सुंदरता को छिपाने के लिए घूंघट का इजाद हो गया। पहले यह आक्रमणकारियों से बचने के लिए था, फिर परिवार में बड़ों के सम्मान के लिए और धीरे से इसने अनिवार्यता का रूप धारण कर लिया। आक्रमणकारी चले गए, देश आजाद हो गया लेकिन महिलाओं के चेहरों पर पर्दा अब भी कायम है।
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क्या आप जानते हैं क्यों दिखाते हैं दुल्हन को तारा?

हमारे देश में शादी से जुड़ी बहुत सारी परंपराएं हैं। भारत के हर क्षेत्र में शादी से जुड़ी कई अलग-अलग परंपरा है। विदाई से जुड़ी भी कई क्षेत्रीय परंपराएं है। उन्ही में से एक रस्म है विदाई के समय वधु को तारा दिखाने की मुख्य रूप से बिहार और उत्तर प्रदेश में इस परंपरा का निर्वाह किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह नववधु के जीवन पर सकारात्मक प्रभाव डालती है। कई जगह इस रस्म में वधु को ध्रुव तारा तो कुछ क्षेत्रों में अरूंधती तारा दिखाया जाता है।
अरून्धती महर्षि वसिष्ठ जी की पत्नी हैं। महर्षि वसिष्ठ सूर्यवंशी राजाओं के एकमात्र गुरू रहे हैं। अरून्धतीके समान रूप, गुण व धर्म-परायण दूसरी कोई स्त्री नहीं है तथा अरून्धती की आयु सात कल्पों तक मानी गई है। वे सदैव अपने पति के साथ रहती है। अरून्धती के अतिरिक्त अन्य किसी भी ऋषि पत्नी को सप्तर्षि मंडल में स्थान नहीं मिला है।
नववधू को विवाह के अवसर पर तारा दर्शन की रस्म के रूप में देवी अरून्धती के या ध्रुव तारे के ही दर्शन कराए जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि इसके दर्शन से अरून्धती और ध्रुव के जैसे गुणों का विकास नववधू में हो तथा जिस प्रकार अरून्धती का अखण्ड सौभाग्य बना हुआ है, उसी प्रकार नववधू का भी सौभाग्य अखण्ड रहे।
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लड़कियों के लिए उन दिनों परफ्युम लगाना वर्जित क्यों?

कहते हैं भगवान की सबसे खुबसुरत रचना स्त्री है। पुरूषों की तुलना में महिलाएं अधिक कोमल और भावुक होती है। स्त्री और पुरूष मे ईश्वर ने अनेक भिन्नताएं दी हैं। इन्ही भिन्नताओं में से एक है मासिक धर्म। मासिक धर्म के समय दिनों में महिलाओं के लिए सभी धार्मिक कार्य वर्जित किए गए हैं। साथ ही इस दौरान महिलाओं को अन्य लोगों से अलग रहने का नियम भी बनाया गया है। उन दिनों महिलाओं पर अधिक तीव्र खुशबु वाले परफ्युम लगाने को भी मना किया जाता है। आजकल के अधिकांश युवा इसे अंधविश्वास मानकर उस पर विश्वास नहीं करते हैं। मासिक धर्म के समय महिलाओं को अनेक तरह के शारीरिक व्याधियां परेशान करती है। जिसके कारण वे आम दिनों की अपेक्षा अधिक कमजोर हो जाती हैं। साथ ही इस समय कुछ विशेष तरह के हामौन्स का भी सिक्रे शन होता है। इसलिए इस समय नकारात्मक शक्तियां जल्दी ही महिलाओं को जो शारीरिक रूप से कमजोर उन्हे अपनी चपेट में ले लेती हैं। इसके अलावा ऐसा माना जाता है कि ये शक्तियां तीव्र गंध की तरफ भी बहुत अधिक आक र्षित होती हैं। इसलिए ऐसा कहा जाता है कि जब शारीरिक रूप से कमजोर महिलाएं जब तीव्र गंध लगा लेती हैं तो नकारात्मक शक्तियां उन्हें अपने प्रभाव में ले लेती हैं।
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दूल्हा-दुल्हन क्यों रचाते हैं मेंहदी?

हमारे यहां शादी में दूल्हा और दुल्हन को मेहंदी लगाने की परंपरा है। साथ ही हर खुशी के अवसर पर महिलाएं, युवतियां, लड़कियां मेहंदी जरूरी लगाती हैं। आजकल तो मेहंदी एक फैशन की तरह ट्रेंड में आ गई है। सामान्यत: बिना किसी विशेष अवसर के भी लड़कियों के हाथों में लगी मेंहदी दिखाई देती है। शादी एक ऐसा प्रसंग होता है जिसमें दूल्हा दुल्हन को बहुत अच्छे से सजाया और संवारा जाता है। हल्दी के अलावा शादी में मेंहदी की रस्म भी बड़ी धुमधाम से की जाती है। इस रस्म में दूल्हा- दुल्हन को मेंहदी लगाने के साथ ही नाच-गाना भी किया जाता है।
मेंहदी की रस्म के पीछे कारण सिर्फ इतना है कि मेंहदी को सौभाग्य सामग्री मानी जाती है। इसलिए माना जाता है कि दूल्हा या दुल्हन को मेंहदी जितनी गहरी रचती है उनका आपसी प्यार और सामंजस्य उतना ही अधिक होता है। मेहंदी को गंध के रूप में देवताओं को भी अर्पित किया जाता है। मेंहदी से दूल्हा या दुल्हन के सौन्दर्य में चार चांद लग जाते हैं। इसलिए हर खुशी के मौके पर मेंहदी लगाने की परंपरा शुरू की गई क्योंकि मेंहदी की तासीर ठंडी होती है। मेंहदी कई तरह की त्वचा के रोग मिटाते हैं। मेंहदी का प्रयोग गर्मी से राहत पाने के लिए भी किया जाता है।
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क्यों दिया जाता है सूर्य को अघ्र्य?

भारत में वैदिक काल से ही सूर्य को देवता के रूप में पूजा जा रहा है। अक्सर लोगों को यह लगता है कि सूर्य को जल चढ़ाने से सीधे कोई लाभ मिलता है या नहीं। वास्तव में सूर्य को जल चढ़ाने से हमारे व्यक्तित्व पर सीधा असर पड़ता है।
इसके दो कारण हैं। सूर्य को अघ्र्य देने के पीछे वैज्ञानिक कारण यह है कि जब हम सुबह जल्दी उठकर सूर्य को जल चढ़ाते हैं तो इससे सीधे-सीधे हमारे स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। सुबह की ताजी हवा और सूर्य की पहली किरणों हम पर पड़ती हैं। इससे हमारे चेहरे पर तेज दिखाई देता है।
दूसरा कारण है जब हम सूर्य को जल चढ़ाते हैं और पानी की धारा के बीच उगते सूरज को देखते हैं तो नेत्र ज्योति बढ़ती है, पानी के बीच से होकर आने वाली सूर्य की किरणों जब शरीर पर पड़ती हैं तो इसकी किरणों के रंगों का भी हमारे शरीर पर प्रभाव पड़ता है। जिससे विटामिन डी जैसे कई गुण भी मौजूद होते हैं। इसलिए कहा गया है कि जो उगते सूर्य को जल चढ़ाता है उसमें सूर्य जैसा तेज आता है।
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14 फरवरी को ही वेलेन्टाइन डे क्यों मनाते हैं?

वेलेन्टाइन डे कब से और क्यों मनाया जाने लगा?इसके बारे में अनेक मान्यताएं है। कुछ स्थानों पर ऐसा माना है कि संत वेलेन्टाइन को ईस्वी सन् 270 के फरवरी माह के मध्य दफन किया गया। उस समय रोम में सम्राट क्लॉडियस का शासन था। उसके अनुसार विवाह करने से पुरूषों की शक्ति और बुद्धि कम होती है। उसने इसलिए यह नियम बना दिया की कोई सैनिक या अधिकारी विवाह नहीं करेगा। संत वेलेंटाइन ने राजा के आदेश का विरोध किया। तब से उनकी स्मृति में प्रेम दिवस यानी वेलेंटाइन डे मनाया जाता है।प्राचीन रोम में फरवरी को सफाई का महीना मानते थे। घर के बाहर भीतर पुताइ़ लिपाई की जाती थी। वेलेन्टाइन के प्राचीन रोमन संस्कृति के मिलन दिवस के बतौर मनाया जाता है।
कुछ अन्य किंवदंतियों के मुताबिक रोमन जेल में बंद रहने वाले ईसाइयों को यातनांए दी जाती थी उन्हें भागने में वेलेन्टाइन मदद करते थे।इसीलिए उन्हें राजा ने मरवा दिया। एक अन्य मान्यता के मुताबिक वेलेन्टाइन स्वयं जेल में बन्दी थे तब वे जेलर की जवान लड़की से प्यार करने लगे जो प्रतिदिन उनसे मिलने आती थी। पहली बार वेलेन्टाइन ने अपने आपको ही वेलेन्टाइन ग्रीटिंग कार्ड भेजा था। पत्र में नीचे लिखा था। क्या तुम मेरी वेलेन्टाइन बनोगी। तभी से यह परंपरा अस्तित्व में आई। संत वलेन्टाइन की समृति में आज भी वेलेन्टाइन डे मनाया जाता है।
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वेलेन्टाइन डे पर पार्टनर को रेड रोज ही क्यों देते हैं?

जऱा सोचिए प्यार के बगैर जिंदगी या जिंदगी बगैर प्यार कैसा होगा? बिल्कुल एक मुरझाये फूल की तरह होगा ना। किसी भी व्यक्ति के लिए अपने आप से प्यार करना जितना आसान है दूसरों को प्यार देना उतना मुश्किल। प्यार करने वालें के ले ही हम कितने स्ट्रेस में क्यों न हों लेकिन हम उम्मीद करते हैं कि सब हम से प्यार से बात करें। आजकल की भागदौड़ भरी जिंदगी में एक-दूसरे के लिए वक्त ही नहीं निकाल पाते हैं।इसलिए रिश्तों में दूरियां बढ़ती जा रही है।
ऐसे में वेलेन्टाइन डे प्यार करने वालों के जीवन को फिर से एक नये उत्साह और उमंग से भर देता है। वेलेन्टाइन डे के दिन अपने पार्टनर को लाल गुलाब देने की परंपरा है। दरअसल लाल गुलाब देने का कारण यह है कि रिश्ते में हमेशा गर्माहट बनी रहे। लाल रंग जोश व उग्रता का भी प्रतीक है। जब आप किसी को प्रेम करते हैं और उसे लाल गुलाब देते हैं तो यह इस बात का प्रतीक है कि आप चाहते हैं कि आप दोनों का रिश्ता गुलाब के फूल की तरह ही ताजगी और सुन्दरता से भरा रहे।
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पूजा के समय क्यों बजाते हैं घंटियां?

पूजा के समय घर में शंख या घंटियां बजाई जाती है। साथ ही मंदिरों में लगी बड़ी-बड़ी घंटियां और बजाया जाने वाला शंख सिर्फ रस्मी तौर पर की जाने वाली क्रियाएं नहीं हैं। इनमें स्वास्थ्य और प्रकृति से जुड़ी बहुत महत्वपूर्ण बातें हैं। भारतीय सनातन परंपरा में जो भी पद्धतियां या परिपाटियां तय की गई हैं, वे बड़े वैज्ञानिक तथ्यों को ध्यान में रखकर तय की गई हैं।
मंदिर की घंटियों और शंख की ध्वनि में भी ऐसा ही वैज्ञानिक रहस्य है।शंख की ध्वनि शरीर और वातावरण दोनों को प्रभावित करती है। शंख बजाने के लिए शरीर से काफी जोर लगाना होता है। जो एक तरह की कसरत शरीर के लिए हो जाती है। इसके साथ ही शंख से निकलने वाली ध्वनि का एक विशेष प्रभाव होता है जो वातावरण में फैले अतिसूक्ष्म बैक्टिरिया को मारता जो सेहत के लिए हानिकारक होता है। इसी तरह घंटी की ध्वनि भी वातावरण को शुद्ध करती है।
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क्यों बनी जमीन पर बैठकर खाना खाने की परंपरा!

भारत में प्रचीन समय से ही जमीन पर बैठकर खाना खाने की परंपरा थी। लेकिन आज पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण डायनिंग टेबल पर खाना खाने की संस्कृति हमारे यहां बस चुकि है।हमारे पूर्वजो ने जो भी परंपरा बनाई थी उसके पीछे कोई गहरी सोच थी।
इसलिए जमीन पर सुखासन में बैठकर खाना खाने की परंपरा बनाई गई। जमीन पर सुखासन अवस्था में बैठकर खाने से वे कई स्वास्थ्य संबंधी लाभ प्राप्त कर शरीर को ऊर्जावान और स्फू र्तिवान बना सकते हैं।
जमीन पर बैठकर खाना खाते समय हम एक विशेष योगासन की अवस्था में बैठते हैं, जिसे सुखासन कहा जाता है। सुखासन पद्मासन का एक रूप है। सुखासन से स्वास्थ्य संबंधी वे सभी लाभ प्राप्त होते हैं जो पद्मासन से प्राप्त होते हैं।
- बैठकर खाना खाने से हम अच्छे से खाना खा सकते हैं।
- इस आसन से मन की एकाग्रता बढ़ती है।
- इस तरह खाना खाने से मोटापा, अपच, कब्ज, एसीडीटी आदि पेट संबंधी बीमारियों में भी राहत मिलती है।
- सुखासन से पूरे शरीर में रक्त-संचार समान रूप से होने लगता है। जिससे शरीर अधिक ऊर्जावान हो जाता है।
- इस आसन से मानसिक तनाव कम होता है और मन में सकारात्मक विचारों का प्रभाव बढ़ता है।
- इससे हमारी छाती और पैर मजबूत बनते हैं।
- सुखासन वीर्य रक्षा में भी मदद करता है।
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कब और क्यों ना पहने काले कपड़े?

हिन्दू शादियों में दूल्हा-दुल्हन को काले कपड़े नहीं पहनने दिया जाता है क्योंकि हमारे यहां यह मान्यता है कि काला रंग अशुभ होता है।
अधिकतर लोग इसे अंधविश्वास मानकर इस बात को नहीं मानते हैं क्योंकि काले रंग के कपड़े इन दिनों फैशन में है इसलिए आजकल शादी में दूल्हा- दुल्हन भी और उनके रिश्तेदार भी इस बात को अंधविश्वास मानकर टाल देते हैं।
लेकिन ज्योतिष के अनुसार भी शुभ कार्य में काले रंग के कपड़े नहीं पहनना चाहिए।इसलिए शादी में भी वस्त्रों में लाल, पीले और गुलाबी रंगों को अधिक मान्यता दी जाती है क्योंकि लाल रंग सौभाग्य का प्रतीक माना गया है। इसके पीछे वैज्ञानिक तथ्य यह है कि लाल रंग ऊर्जा का स्तोत्र है। लाल रंग सकारात्मक भावना का प्रतीक है।
इसके विपरीत जब नीले, भूरे और काले रंगों की मनाही करते हैं तो उसके पीछे भी वैज्ञानिक कारण हैं। काला और गहरा रंग नैराश्य का प्रतीक है और ऐसी भावनाओं को शुभ कार्यो में नहीं आने देना चाहिए। जब पहले ही कोई नकारात्मक विचार मन में जन्म ले लेंगे तो रिश्ते का आधार मजबूत नहीं हो सकता। इसलिए शादी में वर और वधु दोनों को ही काले कपड़े नहीं पहनना चाहिए।
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जल्दी शादी के लिए गुरुवार का व्रत ही क्यों?

कहते हैं जिन लोगों की कुंडली में दोष होता है उनकी शादी में विघ्र आते हैं या तो उनकी शादी या तो बहुत जल्दी होती है या बहुत देर से होती है। लोगों के विवाह में देरी का एक कारण मंगली लड़की या लड़के का ना मिलना भी होता है। समय पर योग्य वर या वधु नहीं मिल पाते हैं। जो मिलते हैं वहां कोई दूसरी समस्या सामने आ जाती है। ऐसे में शीघ्र विवाह के लिए गुरु के उपाय करने को कहा जाता है।
ज्योतिष के अनुसार गृहस्थ जीवन को गुरु प्रभावित करता है। पारिवारिक शांति और सुखमय गृहस्थ जीवन के लिए बृहस्पति यानी गुरु से संबंधित उपाय किए जाते है तो निश्चित ही घर में सुख शांति बनी रहती है। दरअसल गुरु को विवाह का कारक गृह माना जाता है। जब किसी की कुंडली में गुरु अशुभ होता है तो उसकी कुंडली में विवाह विलंब योग बनता है।गुरु को जन्मकुंडली के सप्तम भाव का कारक माना जाता है।
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केशदान की परंपरा है यहां क्योंकि...

तिरूपति बालाजी के प्रति हिंदूओं की अटूट आस्था है। ऐसा माना जाता है यहां साक्षात् भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी विराजमान हैं। यहां बालाजी की करीब 7 फीट ऊंची श्यामवर्ण की प्रतिमा स्थापित है। वैसे तो यहां कई परंपराओं का चलन है परंतु केशदान की अनूठी प्रथा सर्वाधिक प्रचलित है।
बालाजी मंदिर पर केशदान को लेकर कई मान्यताएं हैं। यहां केश समर्पित करने का अर्थ है कि श्रद्धालु अपना अहंकार, बुराइयां, जाने-अनजाने किए गए पाप को भगवान के चरणों में समर्पित कर बालाजी की नि:स्वार्थ भक्ति हृदय में स्थापित करता है। यहां केशदान करने के बाद भगवान बालाजी के चरणों में श्रद्धालु की भक्ति और अधिक बढ़ जाती है।
जिससे भगवान भक्त की सारी मनोकामनाएं पूर्ण कर उसे सुख और समृद्धि का वर प्रदान करते हैं। कई लोग अपनी मनोकामनाएं पूर्ण होने पर भी यहां केशदान करते हैं।प्राचीन काल में यह परंपरा लोग अपने-अपने घरों में ही संपन्न किया करते थे। परंतु आज बालाजी मंदिर के पास स्थित कल्याण कट्टा नामक स्थान पर सामूहिक रूप से केशदान संस्कार किया जाने लगा है। यहां केशदान के बाद श्रद्धालु पुष्करिणी में स्नान कर बालाजी के दर्शन करते हैं। जिससे अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।
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शनि दोष दूर करने के लिए किसे और क्यों दे चपाती?

शनि वैसे तो न्याय के देवता है परंतु यदि किसी व्यक्ति से कोई गलत और अधार्मिक कार्य हो गया है तो शनि उसके पाप का बुरा फल जरूर देते है। यह फल शनि साढ़ेसाती और ढैय्या के समय व्यक्ति के जीवन को पूरी तरह प्रभावित करता है।शनि के अशुभ प्रभाव को दूर करने के लिए काले कुत्ते को रोटी दी जाती है।
लेकिन शनि के अशुभ फल को दूर करने के लिए काले कुत्ते को ही चपाती क्यों दें? यह जिज्ञासा अक्सर लोगों के मन में होती है और जब उन्हें इसका उचित जवाब नहीं मिलता तो वे इसे अंधविश्वास मान लेते हैं। दरअसल इस उपाय को करने का कारण यह है शनि को श्याम वर्ण माना जाता है अर्थात् शनि देव स्वयं काले रंग के हैं और वे काले रंग के लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
साथ ही वराह संहिता के अनुसार काले कुत्ते को शनि का वाहन माना गया है। शनि को सेवा करने वाले और वफादार लोग पसंद होते हैं और काले कुत्ते में ये दोनों ही गुण होते हैं इसलिए शनि को प्रसन्न करने के लिए काले कुत्ते को तेल से लगी हुई चपाती देने की मान्यता है।
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मंदिर के अंदर ना जा पाएं तो करें किसके दर्शन?

मंदिर का वातावरण भी मन को लुभाने वाला होता है, मंदिर जाने से मन को शांति मिलती है। इन्हीं बातों की वजह से सभी मंदिर जाने की इच्छा रखते हैं लेकिन कुछ लोग समय अभाव या अन्य किसी कारण से मंदिर नहीं जा पाते। यदि कोई व्यक्ति प्रतिदिन भगवान के दर्शन करने नहीं जा पाता है तो ऐसे में जहां भी किसी मंदिर का शिखर दिखाई दे वहां से भगवान को याद करके शिखर दर्शन कर लेना चाहिए।
शास्त्रों के अनुसार मंदिर के शिखर दर्शन को भी भगवान के दर्शन के बराबर ही पुण्य देने वाला बताया गया है। मंदिर का शिखर भी उतना ही महत्व है जितना भगवान की प्रतिमा या मूर्ति का होता है। शास्त्रों में कहा गया है कि शिखर दर्शनम् पाप नाशम्। अर्थात शिखर के दर्शन करने से भी हमारे सभी पापों का नाश हो जाता है। इसलिए यदि आपके पास मंदिर जाने का वक्त नहीं है तो आप शिखर के दर्शन कर भी यदि अपने ईष्ट को याद करें तो आपको मानसिक शांति मिलती है।
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मांगलिक की शादी मांगलिक से ही क्यों?

कहते हैं जिन लोगों की कुंडली में मंगल दोष होता है उनकी शादी में विघ्र आते हैं या तो उनकी शादी या तो बहुत जल्दी होती है या बहुत देर से होती है। मंगली लोगों के विवाह में देरी का एक कारण मंगली लड़की या लड़के का ना मिलना भी होता है। समय पर योग्य वर या वधु नहीं मिल पाते हैं। जो मिलते हैं वहां कोई दूसरी समस्या सामने आ जाती है। जब ऐसी परिस्थिति बनती है तो मन में यह ख्याल आता है कि क्या अनिवार्य है कि मंगली लड़के की शादी मंगली लड़की से ही कि जाए? ऐसे में कई लोग इस मान्यता को अंधविश्वास मान लेते है।
लेकिन यह अंधविश्वास नहीं है ज्योतिष के अनुसार मंगली स्त्री या पुरुष अपने जीवन साथी से विशेष अपेक्षाएं रखते हैं, तथा जीवन साथी के मामले में बहुत संवेदनशील होते हैं। मंगली जातक सहवास के मामले में प्रबल होते है, अत: वह अपने साथी से भी उतनी अपेक्षा रखते है। परंतु यदि उनका साथी पूर्णत: उनका सहयोग नहीं करता, तब उनमें विवाद उतपन्न होने का भय होता है। इस कारण शास्त्र जोर देता है कि मंगली का विवाह मंगली से हि हो परंतु कही-कही अपवाद स्वरूप लड़के की कुंडली में मंगल हो और लड़की की कुंडली में 1, 4, 7, 8, 12 स्थान में शनि हो या मंगल के साथ गुरु हो तब भी मंगल का प्रभाव समाप्त माना जाता है। मंगली जातक का विवाह विलंब से पर अच्छी जगह होता है।
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घर में मंदिर क्यों बनवाते हैं?

भारत में ऐसी मान्यता है कि जिस घर में मंदिर नहीं होता वहां सुख और शांति नहीं रहती है। इसलिए घर में मंदिर बनवाए जाते है लेकिन यदि हम वास्तु के नजरिए से देखें तो घर के अंदर सही दिशा में मंदिर बनवाने का अपना महत्व है। वास्तु के अनुसार घर में पूजास्थल या मंदिर जरूर बनवाना चाहिए क्योंकि इससे मानसिक शांति मिलती है।
साथ ही पूजा घर हमेशा ईशान्य कोण में बनाना चाहिए।इस मान्यता का मुख्य कारण यह है कि ईशान्य कोण यानी उत्तर-पूर्व के कोने का स्वामी गुरु है। ज्योतिष के अनुसार गुरु अध्यात्म और धर्म का ग्रह है।ईशान्य सात्विक ऊर्जाओं का प्रमुख स्त्रोत है। किसी भी भवन में ईशान्य कोण सबसे ठंडा क्षेत्र है। वास्तु पुरूष का सिर ईशान्य में होता है। जिस घर में ईशान्य कोण में दोष होगा उसके निवासियों को दुर्भाग्य का सामना करना पड़ता है।
ईशान्य कोण का अधिपति शिव को माना गया है। ऐसा माना जाता है कि घर के इस कोने में पूजा करने से घर की सकारात्मक ऊर्जा में तेजी से वृद्धि होती है। साथ ही पूजा घर बनवाने से घर की सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि से घर के हर सदस्य को अपने कार्य में क्षेत्र में सफलता मिलने लगती है।
इसलिए पूजा घर हमेशा ईशान्य कोण में बनवाया जाता है।
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एक ही गौत्र में शादी क्यों नहीं की जाती?

हिन्दू धर्म में शादी से पहले गौत्र मिलान और कुंडली मिलान की भी परंपरा है कुछ लोग इस प्रथा को अंधविश्वास मानकर टाल देते हैं तो कुछ लोग इसे सही मानते हैं। दरअसल यह कोई अंधविश्वास नहीं है। इसके पीछे धार्मिक कारण यह है कि हमारी धार्मिक मान्यता के अनुसार एक ही गौत्र या एक ही कुल में विवाह करना पूर्णतया प्रतिबंधित किया गया है।यह प्रतिबंध इसलिए लगाया गया क्योंकि एक ही गौत्र या कुल में विवाह होने पर दंपत्ति की संतान अनुवांशिक दोष के साथ उत्पन्न होती है।
ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा, पसंद, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता। ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है। विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगौत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात् मानसिक विकलांगता, अपंगता, गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगौत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया था।
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गर्भवती महिलाओं कहां और क्यों नहीं जाना चाहिए?

गर्भवती महिला को बच्चे के जन्म से पूर्व अनेक सावधानियां रखनी होती हैं। जिससे बच्चे के जन्म के बाद जच्चा और बच्चा दोनों स्वस्थ्य रहे। इसलिए हमारे यहां बच्चे के जन्म के पूर्व की भी अनेक परंपराएं हैं जिनका गर्भवती महिला को पालन करना होता है। ऐसी ही एक परंपरा है कि गर्भवती स्त्री को सातवें महीने के बाद नदी व नाले पार नहीं करना चाहिए या उनके पास नहीं जाना चाहिए ताकि माता और उसके गर्भ में पल रहा शिशु दोनों की सुरक्षा और सेहत अच्छी बनी रहे।
आजकल के अधिकांश लोग इस परंपरा का पालन नहीं करते हैं क्योंकि वे इसे सिर्फ अंधविश्वास मानते हैं। लेकिन ये मान्यता अंधविश्वास नहीं है दरअसल इसके पीछे कई कारण छुपे हैं। ऐसा माना जाता है कि नदी और नाले जैसे जो क्षेत्र रहते हैं वहां नकारात्मक ऊर्जा और आत्माओं का निवास होता है। इसीलिए श्मशान भी नदी के किनारे बनाये जाते हैं और ऐसे स्थानों पर ही तंत्र साधना की जाती है।जब कोई स्त्री गर्भवती होती है तो उसके शरीर में बहुत सारे शारिरीक परिवर्तन होते हैं। उनका शरीर सामान्य से अधिक संवेदनशील होता है। ऐसे में नदी या नाले को पार करने से या उनके पास जाने से होने वाले बच्चे पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा इसका एक अन्य कारण यह भी है कि एक बार जब गोद भराई करके होने वाले शिशु की मां को मायके भेज दिया जाता है। तो वो वहां अच्छे से आराम करे और यात्राएं ना करे ताकि होने वाली संतान स्वस्थ्य हो क्योंकि सातवे महीने के बाद गर्भवती महिलाओं को यात्रा करने पर कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।
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सामाजिक एकता के प्रतीक हैं संत रविदास

हमारे देश में समय-समय पर कई महान संत हुए जिन्होंने समाज को एक नई दिशा दी तथा समाज में फैली कुरीतियों को दूर किया। संत रविदास भी उन्हीं में से एक थे। संत रविदास को ही रैदास के नाम से भी जाना जाता है।
संत रविदास ने साधु-सन्तों की संगति से व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा पाई। जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे। प्रारम्भ से ही रैदास बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव था।
साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। उन्होंने समाज में फैली छुआ-छूत, ऊँच-नीच आदि सामाजिक बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। संत रविदास की भक्ति से प्रभावित भक्तों की एक लंबी श्रृंखला है। संत रविदास के आदर्शों और उपदेशों को मानने वाले रैदास पंथी कहलाते हैं। रविदास के पद, नारद भक्ति सूत्र और रविदास की बानी उनके प्रमुख संग्रह हैं।
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कब और क्यों ना करें सफाई?

सामान्यत: सभी के घरों में सुबह-सुबह ही नहाने से पूर्व ही साफ-सफाई का कार्य कर लिया जाता है। सभी धर्म शास्त्रों के अनुसार शाम या रात्रि के समय घर की साफ-सफाई निषेध की गई है। इसकी वजह यह है कि घर के कचरे में बीमारी फैलाने वाले कीटाणु रहते हैं जो सफाई के समय हमारे शरीर पर चिपक जाते हैं, यह कीटाणु स्वास्थ्य के हानिकारक होते हैं।
सुबह सफाई करने के बाद घर के सभी सदस्य नहा लेते हैं जिससे शरीर पर लगे बीमारी के कीटाणु धुल जाते हैं और उन कीटाणुओं से बीमार होने की संभावना समाप्त हो जाती है। परंतु यदि रात्रि के समय सफाई करेंगे तो वह सारे कीटाणु घर के सदस्यों के शरीर पर चिपक जाएंगे। रात्रि के समय सभी सदस्य नहाते भी नहीं है ऐसे में उन कीटाणुओं से हमारे स्वास्थ्य को खतरा रहता है। तो उस खतरे से हमें बचाने के लिए रात्रि के समय साफ-सफार्ई निषेध की गई है।
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मृत व्यक्ति के बिस्तर क्यों ना रखें?

भारत मान्यताओं और परंपराओं का देश है। हमारी कोई भी परंपरा अंधविश्वास नहीं है। हमारे यहां हर परंपरा के पीछे कुछ तथ्य या वैज्ञानिक आधार है। किसी परिवार के सदस्या या संबंधी के मौत हो जाने पर भी हमारे यहां अनेक परंपराओं का पालन किया जाता है। मृत्यु एक अटल सत्य है। जिसने जन्म लिया है उसे मृत्यु अवश्य प्राप्त होगी। हिंदू धर्म में मृत्यु के संबंध में कई महत्वपूर्ण नियम बनाए गए हैं। ऐसा ही एक नियम है मृत व्यक्ति के बिस्तर घर में ना रखने का।
इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि मृत व्यक्ति के शरीर में जो सुक्ष्मजीव होते हैं वे उसके बिस्तर पर भी होते हैं। हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार किसी घर में मौत होती है तो उस घर में बारह दिन का सुतक रहता है और बारह दिन तक घर में पूजा-पाठ भी नहीं किया जाता है उसके बाद सुतक निकाला जाता है और उसके बिस्तर भी दान कर दिए जाते हैं उस व्यक्ति के बिस्तर जिस पर उसकी मृत्यु होती है। घर में नहीं रखे जाते हैं क्योंकि मृत व्यक्ति के बिस्तर रखने से घर में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह भी होता है।
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स्ट्रेस कम करने के लिए ऊँ का जप ही क्यों

आज की जिन्दगी भागदौड़ से भरी है। इसीलिए मानसिक तनाव होना एक आम बात है। मानसिक तनाव से छुटकारा पाने के लिए योगा व मेडिटेशन के साथ ऊँ का जप करने की सलाह दी जाती है। ऐसा माना जाता है कि मानसिक तनाव से राहत पाने का यह सबसे कारगर तरीका है। मानसिक तनाव ऊँ के उच्चारण के कई सारे फायदे हैं। ऊँ की ध्वनि मानव शरीर के लिये प्रतिकुल डेसीबल की सभी ध्वनियों को वातावरण से निष्प्रभावी बना देती है।विभिन्न ग्रहों से आने वाली अत्यंत घातक अल्ट्रावायलेट किरणों का प्रभाव ओम की ध्वनि की गुंज से समाप्त हो जाता है।
मतलब बिना किसी विशेष उपाय के भी सिर्फ ओम् के जप से भी अनिष्ट ग्रहों के प्रभाव को कम किया जा सकता है। ऊँ का उच्चारण करने वाले के शरीर का विद्युत प्रवाह आदर्श स्तर पर पहुंच जाता है। इसके उच्चारण से इंसान को वाक्सिद्धि प्राप्त होती है। नींद गहरी आने लगती है। साथ ही अनिद्रा की बीमारी से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाता है।मन शांत होने के साथ ही दिमाग तनाव मुक्त हो जाता है।
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क्यों और कब चढ़ाएं तुलसी को जल?

घर के आंगन में तुलसी का पौधा सिर्फ एक पौधा भर नहीं होता है। यह सुख, संपत्ति, ज्ञान, विवेक और स्वास्थ्य का उत्तम खजाना है। कहते हैं, जिस घर के आंगन में तुलसी निवास करती है, वहां सुख और स्वास्थ्य स्वत: ही चले आते हैं, आनंद और पुण्यफल की वर्षा होती है।प्रात: काल पूजा में सूर्य को अर्ध्य के पश्चात तुलसी को जल चढ़ाना चाहिए। तुलसी को जल चढ़ाना भी स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है। तुलसी का सामीप्य पाने हेतु उसके करीब जाना होता है तुलसी एक गुणकारी औषधीय पौधा है। उसकी पत्तियां अपने अंदर अनेक औषधीय गुणो को समेटे हुए है। जल चढ़ाने जब हम उसके करीब जाते हैं तब उसकी सुगंध से हमारे शरीर में स्थित जीवाणु नष्ट हो जाते हैं।जो हमें सर्दी-जुकाम फ्लू ज्वर आदि से रक्षा करती है। इसके अलावा तुलसी का पौधा घर में होने से हवा के साथ उसके बीज एवं सुगंध पूरे घर में फैल जाती है।
जिससे घर के सभी लोग मानसिक एवं शारीरिक रूप से स्वस्थ रहते हैं।तुलसी के इन्हीं गुणो के कारण उनकी पूजन होती है। तथा घर-घर में उनका पौधा रोपा जाता है। तुलसी के पत्तों का भगवान विष्णु के प्रसाद के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। तुलसी को हम सम्मान के नजरिए से देखते हैं। उनका पूजन करते हैं। अत: उनके पत्तों को दांतों से चबाकर सेवन करना निषेध है। तुलसी के पत्तों का सेवन चूसकर निगलने के रूप में ही किया जाता है।



पूजन में नारियल क्यों?

नारियल को शुद्धता और पवित्रता का प्रतीक माना जाता है। घर में कोई भी त्यौहार हो या किसी विशेष पूजा का अवसर हो तो नारियल जरूर चढ़ाया जाता है। पूजन में नारियल का प्रयोग लक्ष्मीजी के रूप में होता है। नारियल को श्रीफल भी कहा जाता है। धन अर्पित करने की हमारी शक्ति नहीं परंतु प्रतीक रूप से हम भगवान को श्रीफल अर्पित करते हैं। जिससे धन का अहंकार हमारे भीतर से निकल जाए और हम नारियल के भीतर की तरह श्वेत, कोमल और दोषरहित हो जाए। नारियल ऊपर से जितना कठोर होता है अंदर से उतना मुलायम। जिसका स्वाद सभी को अच्छा लगने वाला है। पूजा में नारियल क्यों अर्पित किया जाता है?
इसके कई कारण हैं... जैसे नारियल का जल मीठा और स्वास्थ्यवर्धक और बलदायक होता है उसी को हम प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं। रुद्ररूप से भी नारियल का पूजन किया जाता है। रुद्र हमारे गर्व का हनन करते हैं। इसलिए किसी-किसी पूजन में नारियल को बधार कर हम प्रतद्मक रूप से हमारे मान, गर्व भगवान के चरणों में समर्पित कर देते हैं।
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शिवलिंग पर शिवरात्रि पर ना चढ़ाएं हल्दी क्योंकि...

शिवरात्रि शिवजी का पर्व माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन शिवलिंग का पूजन करने से शिव का विशेष आशीर्वाद प्राप्त होता है। शिवलिंग शिवजी का ही साक्षात रूप माना जाता है। विधि-विधान से शिवलिंग का पूजन करने से शिवजी प्रसन्न होते हैं और साथ ही सभी देवी-देवताओं की कृपा भी प्राप्त होती है। शिवलिंग एक दैवीय शक्ति है, जो हमारी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करती है।सामान्यत: देवी-देवताओं के विधिवत पूजन आदि कार्यों में बहुत सी सामग्रियां शामिल की जाती हैं। इन सामग्रियों में हल्दी भी शामिल की जाती है। हल्दी एक औषधि भी है और हम इसका प्रयोग सौंदर्य प्रसाधन में भी किया जाता हैं। धार्मिक कार्यों में भी हल्दी का महत्वपूर्ण स्थान है। कई पूजन कार्य हल्दी के बिना पूर्ण नहीं माने जाते।
पूजन में हल्दी गंध और औषधि के रूप में प्रयोग की जाती है। हल्दी शिवजी के अतिरिक्त सभी देवी-देवताओं को अर्पित की जाती है। हल्दी का स्त्री सौंदर्य प्रसाधन में मुख्य रूप से उपयोग किया जाता है।शास्त्रों के अनुसार शिवलिंग पुरुषत्व का प्रतीक है, इसी वजह से महादेव को हल्दी इसीलिए नहीं चढ़ाई जाती है।जलाधारी पर चढ़ाते हैं हल्दीशिवलिंग पर हल्दी नहीं चढ़ाना चाहिए परंतु जलाधारी पर चढ़ाई जानी चाहिए।शिवलिंग दो भागों से मिलकर बनी होती है। एक भाग शिवजी का प्रतीक है और दूसरा हिस्सा माता पार्वती का। शिवलिंग चूंकि पुरुषत्व का प्रतिनिधित्व करता है अत: इस पर हल्दी नहीं चढ़ाई जाती है। हल्दी स्त्री सौंदर्य प्रसाधन की सामग्री है और जलाधारी मां पार्वती से संबंधित है अत: इस पर हल्दी जाती है।
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शिवजी को क्यों चढ़ाते हैं धतूरा और भांग?

कहते हैं शिवरात्रि या सावन के महीने में शिव के पूजन का विशेष महत्व है। शिव की आराधना करने वाले उन्हें प्रसन्न करने के लिए भांग और धतूरा चढ़ाते हैं। लेकिन अधिकांश लोग यह बात नहीं जानते हैं कि उन्हें प्रसन्न करने के लिए धतुरा और भांग जैसी चीजे जिन्हें अनुपयोगी माना गया है क्यों चढ़ाते हैं?
दरअसल भगवान शिव सन्यासी हैं और उनकी जीवन शैली बहुत अलग है। वे पहाड़ों पर रह कर समाधि लगाते हैं और वहीं पर ही निवास करते हैं। जैसे अभी भी कई सन्यासी पहाड़ों पर ही रहते हैं। पहाड़ों में होने वाली बर्फबारी से वहां का वातावरण अधिकांश समय बहुत ठंडा होता है। गांजा, धतूरा, भांग जैसी चीजें नशे के साथ ही शरीर को गरमी भी प्रदान करती हैं।
जो वहां सन्यासियों को जीवन गुजारने में मददगार होती है। अगर थोड़ी मात्रा में ली जाए तो यह औषधि का काम भी करती है, इससे अनिद्रा, भूख आदि कम लगना जैसी समस्याएं भी मिटाई जा सकती हैं लेकिन अधिक मात्रा में लेने या नियमित सेवन करने पर यह शरीर को, खासतौर पर आंतों को काफी प्रभावित करती हैं।
इसकी गर्म तासीर और औषधिय गुणों के कारण ही इसे शिव से जोड़ा गया है। भांग-धतूरे और गांजा जैसी चीजों को शिव से जोडऩे का एक और दार्शनिक कारण भी है। ये चीजें त्याज्य श्रेणी में आती हैं, शिव का यह संदेश है कि मैं उनके साथ भी हूं जो सभ्य समाजों द्वारा त्याग दिए जाते हैं। जो मुझे समर्पित हो जाता है, मैं उसका हो जाता हूं।
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शिवरात्रि पर बिल्वपत्र चढ़ाने का है विशेष महत्व क्योंकि...

भगवान शिव आदि व अनंत है। जिन वस्तुओं को संसार अनुपयोगी या ग्रहण करने योग्य नहीं मानता है जैसे भांग, धतूरा, आंक, बिल्वपत्र वे सभी शिव को प्रिय है यानी शिव वे है जो श्रद्धा से अर्पित किए गए कांटों को भी प्रेम से स्वीकार करते हैं। कहते हैं शिव की पूजा करने से हर तरह का सुख प्राप्त होता है। 2 मार्च को महाशिवरात्रि का महापर्व है।
माना जाता है कि इस दिन शिव के पूजन अर्चन से भक्तों पर उनकी विशेष कृपा होती है। इस दिन शिवजी को पूजन के समय बिल्वपत्र विशेष रूप से अर्पित किए जाते हैं क्योंकि बिल्वाष्टक के अनुसार बिल्वपत्र में तीन पत्र यानी तीन पत्ते होते हैं। जो कि तीन शक्तियों मतलब त्रिदेवों का स्वरूप होते हैं।
ऐसी मान्यता है कि शिव को बिल्वपत्र चढ़ाने से तीन जन्मों के आर्थिक, शारीरिक और मानसिक कष्ट नष्ट होते हैं। साथ ही इसका एक कारण यह भी है कि बिल्वपत्र एक तरह की औषधी है और यह कई तरह की बीमारियों को मिटाता है। इसे शिव को मंत्रों के साथ अर्पित कर ग्रहण करने से दिल से संबंधित बीमारियों और मधुमेह जैसे रोगों में लाभ मिलता है।
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क्यों करते हैं शिव का रुद्राभिषेक?

शिवरात्रि शिवजी की आराधना करने से शिव की कृपा प्राप्त होती है।अधिकांश शिव भक्त इस दिन शिवजी का अभिषेक करते हैं। लेकिन बहुत कम ऐसे लोग है जो जानते हैं कि शिव का अभिषेक क्यों करते हैं?
अभिषेक शब्द का अर्थ है स्नान करना या कराना। यह स्नान भगवान मृत्युंजय शिव को कराया जाता है। अभिषेक को आजकल रुद्राभिषेक के रुप में ही ज्यादातर पहचाना जाता है। अभिषेक के कई प्रकार तथा रुप होते हैं। किंतु आजकल विशेष रूप से रुद्राभिषेक ही कराया जाता है।रुद्राभिषेक का मतलब है भगवान रुद्र का अभिषेक यानि कि शिवलिंग पर रुद्रमंत्रों के द्वारा अभिषेक करना।
रुद्राभिषेक करना शिव आराधना का सर्वश्रेष्ठ तरीका माना गया है। शास्त्रों में भगवान शिव को जलधाराप्रिय:, माना जाता है। भगवान रुद्र से सम्बंधित मंत्रों का वर्णन बहुत ही पुराने समय से मिलता है। रुद्रमंत्रों का विधान ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद में दिये गए मंत्रों से किया जाता है। रुद्राष्टाध्यायी में अन्य मंत्रों के साथ इस मंत्र का भी उल्लेख मिलता है।
अभिषेक में उपयोगी वस्तुएं: अभिषेक साधारण रूप से तो जल से ही होता है। विशेष अवसर पर या सोमवार, प्रदोष और शिवरात्रि आदि पर्व के दिनों में गोदुग्ध या अन्य दूध मिला कर अथवा केवल दूध से भी अभिषेक किया जाता है। विशेष पूजा में दूध, दही, घृत, शहद और चीनी से अलग-अलग अथवा सब को मिला कर पंचामृत से भी अभिषेक किया जाता है। तंत्रों में रोग निवारण हेतु अन्य विभिन्न वस्तुओं से भी अभिषेक करने का विधान है।


क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....omnath godara

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