ओमनाथ गौदारा धांधलास जालप

ॐ नमः शिवाय:

ओमनाथ गौदारा

गाँव - धांधलास जालप, रलियावता रोड धड़ी,

तहसील - मेड़ता सीटी, जिला - नागौर, राजस्थान -341510

Sunday 26 August 2012

परम्परा


परम्परा


सुबह उठते ही सबसे पहले क्या और क्यों देखें?

प्रतिदिन सुबह-सुबह हमारा एक प्रश्न होता है कि हमारा दिन कैसा रहेगा? दिन को अच्छा बनाने के लिए सभी कुछ न कुछ धर्म कर्म अवश्य ही करते हैं। सभी चाहते हैं कि उनका नया दिन शुभ रहे, खुशियां देने वाला हो, दुख दूर करने वाला हो और सफलताएं दिलाने वाला हो। शास्त्रों के अनुसार एक सटिक उपाय बताया गया है जिससे हमारा पूरा दिन श्रेष्ठ बनता है और सभी दुख-क्लेश दूर होते हैं।
सुबह उठते ही सबसे पहले क्या करना चाहिए कि हमारा पूरा दिन अच्छा रहे और घर-परिवार में सुख-शांति बनी रहे? कई लोग भगवान के दर्शन करते हैं तो कुछ अपने घर के सदस्यों का चेहरा देखते हैं लेकिन बिस्तर छोडऩे से पहले हमें हमारे हाथों के दर्शन करने चाहिए। कुछ लोग सोचते हैं कि हाथों के दर्शन से होगा? तो इस प्रश्न का उत्तर यह है कि धर्म ग्रंथों और ऋषि-मुनियों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि हमारे हाथों की हथेलियों में दैवीय शक्तियां निवास करती हैं।
इसी वजह से हमें सुबह उठते ही सबसे पहले अपने हाथों की हथेलियों के दर्शन करने चाहिए। दोनों हाथों को मिलाकर उसके दर्शन करके ही बिस्तर छोडऩा चाहिए।
हमारे हाथ के आगे के हिस्से में (अंगुलियों की ओर) लक्ष्मी, मध्य भाग में सरस्वती और नीचले भाग में नारायण यानी विष्णु का वास होता है। प्रात: हाथों के दर्शन से ही तीनों दिव्य शक्तियों के दर्शन का पुण्य मिलता है। सुबह हथेलियों का दर्शन करने के पीछे यही संदेश है कि हम परमात्मा से अपने कर्मों में पवित्रता और शक्ति की कामना करते हैं। संसार का सारा वैभव, शिक्षा, पराक्रम हमें हाथों के जरिए ही मिलता है। इसलिए हाथों में लक्ष्मी, सरस्वती और विष्णु तीनों का वास माना गया है।
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व्रत-उपवास से क्या होता है? और क्यों?

आज अधिकांश लोग अत्यधिक वजन से परेशान है। असंतुलित खान-पान और अनियमित दिनचर्या के परिणामस्वरूप शरीर में फेट (वसा) बढऩे लगता है, जिससे मोटापा की बीमारी हो जाती है। इसका हमारे स्वास्थ्य पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता है। इसी तरह की कई बीमारियों से बचने के लिए व्रत-उपवास काफी कारगर उपाय है साथ ही इससे धर्म लाभ भी प्राप्त होता है।
व्रत का अर्थ है संकल्प या दृढ़ निश्चय तथा उपवास का अर्थ ईश्वर या इष्टदेव के समीप बैठना भारतीय संस्कृति में व्रत तथा उपवास का इतना अधिक महत्व है कि हर दिन कोई न कोई उपवास या व्रत होता ही है। सभी धर्मों में व्रत उपवास की आवश्यकता बताई गई है। इसलिए हर व्यक्ति अपने धर्म परंपरा के अनुसार उपवास या व्रत करता ही है। वास्तव में व्रत उपवास का संबंध हमारे शारीरिक एवं मानसिक शुद्धिकरण से है। इससे हमारा शरीर स्वस्थ रहता है। व्रत कई प्रकार के होते हैं जैसे नित्य, नैमित्तिक, काम्य व्रत।
नित्य व्रत भगवन को प्रसन्न करने के लिए निरंतर किया जाता है।
नैमित्तिक व्रत किसी निमित्त के लिए किया जाता है।
काम्य: किसी कामना से किया व्रत काम्य व्रत है।
व्रत के स्वास्थ्य लाभ: व्रत उपवास से शरीर स्वस्थ रहता है। निराहार रहने, एक समय भोजन लेने अथवा केवल फलाहार से पाचनतंत्र को आराम मिलता है। इससे कब्ज, गैस, एसिडीटी अजीर्ण, अरूचि, सिरदर्द, बुखार, मोटापा जैसे कई रोगों का नाश होता है। आध्यत्मिक शक्ति बढ़ती है। ज्ञान, विचार, पवित्रता बुद्धि का विकास होता है। इसी कारण उपवास व्रत को पूजा पद्धति को शामिल किया गया है।
व्रत किसे नहीं करना चाहिए- सन्यासी, बालक, रोगी, गर्भवती स्त्री, वृद्धों को उपवास करने पर छूट प्राप्त है।
व्रत के नियम है: जिस दिन उपवास या व्रत हो उस दिन इन नियमों का पालन करना चाहिए:
- किसी प्रकार की हिंसा न करें।
- दिन में न सोएं।
- बार-बार पानी न पिएं।
- झूठ न बोलें। किसी की बुराई न करें।
- व्यसन न करें।
- भ्रष्टाचार न करने का संकल्प लें।
- व्यभिचार न करें।
- किसी भी प्रकार का अधार्मिक कृत्य न करें अन्यथा व्रत का पूर्ण पुण्य लाभ प्राप्त नहीं हो पाता है।
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ताली कब और क्यों बजाते हैं?

सामान्यत: हम किसी भी मंदिर में आरती के समय सभी को ताली बजाते देखते हैं और हम खुद भी ताली बजाना शुरू कर देते हैं। ऐसे कई मौके होते हैं जहां ताली बजाई जाती है। किसी समारोह में, स्कूल में, घर में आदि स्थानों पर जब भी कोई खुशी और उत्साह वाली बात होती है हम उसका ताली बजाकर अभिवादन करते हैं लेकिन ताली बजाते क्यों हैं?
काफी पुराने समय से ही ताली बजाने का प्रचलन है। भगवान की स्तुति, भक्ति, आरती आदि धर्म-कर्म के समय ताली बजाई जाती है। ताली बजाना एक व्यायाम ही है, ताली बजाने से हमारे पूरे शरीर में खिंचाव होता है, शरीर की मांसपेशियां एक्टिव हो जाती है। जोर-जोर से ताली बजाने से कुछ ही देर में पसीना आना शुरू हो जाता है और पूरे शरीर में एक उत्तेजना पैदा हो जाती है। हमारी हथेलियों में शरीर के अन्य अंगों की नसों के बिंदू होते हैं, जिन्हें एक्यूप्रेशर पाइंट कहते हैं। ताली बजाने से इन बिंदुओं पर दबाव पड़ता है और संबंधित अंगों में रक्त संचार बढ़ता है। जिससे वे बेहतर काम करने लगते हैं। एक्यूप्रेशर पद्धति में ताली बजाना बहुत अधिक लाभदायक माना गया है। इन्हीं कारणों से ताली बजाना हमारे स्वास्थ्य के बहुत लाभदायक है।
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भगवान के फोटो कहां और क्यों न लगाएं?

हमारी धार्मिक मान्यताओं में एक यह भी है कि अपने शयनकक्ष यानी बेडरूम में भगवान की कोई प्रतिमा या तस्वीर नहीं लगाई जाती। केवल स्त्री के गर्भवती होने पर बालगोपाल की तस्वीर लगाने की छूट दी गई है। आखिर क्यों भगवान की तस्वीर अपने शयनकक्ष में नहीं लगाई जा सकती है? इन तस्वीरों से ऐसा क्या प्रभाव होता है कि इन्हें लगाने की मनाही की गई है?
वास्तव में यह हमारी मानसिकता को प्रभावित कर सकता है। इस कारण भगवान की तस्वीरों को मंदिर में ही लगाने को कहा गया है, बेडरूम में नहीं। चूंकि बेडरूम हमारी नितांत निजी जिंदगी का हिस्सा है जहां हम हमारे जीवनसाथी के साथ वक्त बिताते हैं। बेडरूम से ही हमारी सेक्स लाइफ भी जुड़ी होती है। अगर यहां भगवान की तस्वीर लगाई जाए तो हमारे मनोभावों में परिवर्तन आने की आशंका रहती है। यह भी संभव है कि हमारे भीतर वैराग्य जैसे भाव जाग जाएं और हम हमारे दाम्पत्य से विमुख हो जाएं। इससे हमारी सेक्स लाइफ भी प्रभावित हो सकती है और गृहस्थी में अशांति उत्पन्न हो सकती है। इस कारण भगवान की तस्वीरों को मंदिर में ही रखने की सलाह दी जाती है।
जब स्त्री गर्भवती होते है तो गर्भ में पल रहे बच्चे में अच्छे संस्कारों के लिए बेडरूम में बाल गोपाल की तस्वीर लगाई जाती है। ताकि उसे देखकर गर्भवती महिला के मन में अच्छे विचार आएं और वह किसी भी दुर्भावना, चिंता या परेशानी से दूर रहे। मां की अच्छी मानसिकता का असर बच्चे के विकास पर पड़ता है।



शिवजी भस्म क्यों रमाते हैं?

हिंदू धर्म में शिवजी की बड़ी महिमा हैं। शिवजी का न आदि है ना ही अंत। शास्त्रों में शिवजी के स्वरूप के संबंध कई महत्वपूर्ण बातें बताई गई हैं। इनका स्वरूप सभी देवी-देवताओं से बिल्कुल भिन्न है। जहां सभी देवी-देवता दिव्य आभूषण और वस्त्रादि धारण करते हैं वहीं शिवजी ऐसा कुछ भी धारण नहीं करते, वे शरीर पर भस्म रमाते हैं, उनके आभूषण भी विचित्र हैं।
शिवजी शरीर पर भस्म क्यों रमाते हैं? इस संबंध में धार्मिक मान्यता यह है कि शिव को मृत्यु का स्वामी माना गया है और शिवजी शव के जलने के बाद बची भस्म को अपने शरीर पर धारण करते हैं। इस प्रकार शिवजी भस्म लगाकर हमें यह संदेश देते हैं कि यह हमारा यह शरीर नश्वर है और एक दिन इसी भस्म की तरह मिट्टी में विलिन हो जाएगा। अत: हमें इस नश्वर शरीर पर गर्व नहीं करना चाहिए। कोई व्यक्ति कितना भी सुंदर क्यों न हो, मृत्यु के बाद उसका शरीर इसी तरह भस्म बन जाएगा। अत: हमें किसी भी प्रकार का घमंड नहीं करना चाहिए।
इस संबंध में एक अन्य तर्क भी है कि शिवजी कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं, जहां का वातावरण अत्यंत ही ठंडा है और भस्म शरीर का आवरण का काम करती हैं। यह वस्त्रों की तरह ही उपयोगी होती है। भस्म बारिक लेकिन कठोर होती है जो हमारे शरीर की त्वचा के उन रोम छिद्रों को भर देती है जिससे सर्दी या गर्मी महसूस नहीं होती हैं। शिवजी का रहन-सहन सन्यासियों सा है। सन्यास का यही अर्थ है कि संसार से अलग प्रकृति के सानिध्य में रहना। संसारी चीजों को छोड़कर प्राकृतिक साधनों का उपयोग करना। ये भस्म उन्हीं प्राकृतिक साधनों में शामिल है।
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कौन सा ग्रंथ घर में नहीं रखते और क्यों?

ग्रंथ, धर्म शास्त्र बताते हैं कि हमें कैसा जीवन जीना चाहिए, हमारे विचार कैसे होने चाहिए, हमारे कर्तव्य और अधिकार क्या हैं, ऐसे ही कई प्रश्नों के उत्तर ग्रंथों में मिल जाते हैं। इसी वजह से सभी के लिए ग्रंथों का अध्ययन करने की सलाह दी जाती है। जीवन की कैसी भी परेशानियां हो, शास्त्रों में उनका हल दिया हुआ।
अधिकांश हिंदू परिवारों में धर्म ग्रंथ के नाम पर रामचरितमानस या फिर श्रीमद् भागवत पुराण ही मिलता है। महाभारत जिसे पांचवां वेद माना जाता है, इसे घरों में नहीं रखा जाता। बड़े-बुजुर्गों से पूछे तो जवाब मिलता है कि महाभारत घर में रखने से घर का माहौल अशांत होता है, भाइयों में झगड़े होते हैं। क्या वाकई ऐसा है? अगर यह मिथक है तो फिर हकीकत क्या है, क्यों रामायण को घर में स्थान दिया जाता है लेकिन महाभारत को नहीं।
वास्तव में महाभारत रिश्तों का ग्रंथ है। परिवारिक, सामाजिक और व्यक्तिगत रिश्तों का ग्रंथ। इस ग्रंथ में कई ऐसी बातें हैं जो सामान्य बुद्धि वाला इंसान नहीं समझ सकता। पांच भाइयों के पांच अलग-अलग पिता से लेकर एक ही महिला के पांच पति तक। सारे रिश्ते इतने बारिक बुने गए हैं कि आम आदमी जो इसकी गंभीरता और पवित्रता को नहीं समझ सकता। वह इसे व्याभिचार मान लेता है और इसी से समाज में रिश्तों का पतन हो सकता है। इसलिए भारतीय मनीषियों ने महाभारत को घर में रखने से मनाही की है क्योंकि हर व्यक्ति इस ग्रंथ में बताए गए रिश्तों की पवित्रता को समझ नहीं सकता।
इसमें जो धर्म का महत्व बताया गया है वह भी सामान्य बुद्धि से नहीं समझा जा सकता, इसके लिए गहन अध्ययन और फिर गंभीर चिंतन की आवश्यकता होती है।
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शादी के कार्ड पर श्री गणेश का चित्र क्यों ?

श्रीगणेश पूजा अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण व कल्याणकारी है। चाहे वह किसी कार्य की सफलता के लिए हो या फिर चाहे किसी कामनापूर्ति स्त्री, पुत्र, पौत्र, धन, समृद्धि के लिए या फिर अचानक ही किसी संकट मे पड़े हुए दुखों के निवारण हेतु हो। जब कभी किसी व्यक्ति को किसी अनिष्ट की आशंका हो या उसे शारीरिक या आर्थिक कष्ट उठाने पड़ रहे हो तो ऐसे में उसे श्री गणेश की आराधना करने को कहा जाता है। श्री गणेश को सभी दुखों को हरने वाला या दुखहर्ता माना गया है।
श्री गणेश बुद्धि के देवता हैं। इसीलिए श्री गणेश प्रथम पूज्य है यानि हर शुभ कार्य में गणेशजी की पूजा सबसे पहले की जाती है क्योंकि उनके स्वरूप में अध्यात्म और जीवन के गहरे रहस्य छुपे हैं। जिनसे हम जीवन प्रबंधन के सफल सूत्र हासिल कर सकते हैं।
इसी तरह श्री गणेश की छोटी आंखें मानव को जीवन में सूक्ष्म दृष्टि रखने की प्रेरणा देती हैं। उनकी बड़ी नाक (सूंड) दूर तक सूंघने में समर्थ है जो उनकी दूरदर्शिता को बताती है। जिसका अर्थ है कि उन्हें हर बात का ज्ञान है। श्री गणेश के दो दांत हैं एक पूर्ण व दूसरा अपूर्ण। पूर्ण दांत श्रद्धा का प्रतीक है तथा टूटा हुआ दांत बुद्धि का। शास्त्रों के अनुसार गणेश को विघ्रहर्ता माना जाता है। इसीलिए शादी के कार्ड पर श्री गणेश का चित्र बनवाने की परंपरा अस्तित्व में आई ताकि शादी जैसा बड़ा आयोजन श्री गणेश की कृपा से बिना किसी विघ्र के सम्पन्न हो जाए। श्री गणेश का विघ्रकर्ता का रूप जगत के प्राणियों के कार्य और व्यवहार को मर्यादा और सीमाओं में रखता है, तो विघ्रहर्ता रूप कार्य के शुभ आरंभ और उसमें आने वाली बाधाओं को दूर कर निर्विघ्र संपन्न करता है।
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क्यों रखते हैं सिर पर दुपट्टा?

सभी धर्मों की स्त्रियां दुपट्टा या साड़ी के पल्लू से अपना सिर ढंककर रखती हैं। सिर ढंककर रखना सम्मान सूचक भी माना जाता है। इसके वैज्ञानिक कारण भी है। सिर मनुष्य के अंगों में सबसे संवेदनशील स्थान होता है। ब्रह्मरंध्र सिर के बीचों-बीच स्थित होता है। मौसम का मामूली से परिवर्तन के दुष्प्रभाव ब्रह्मरंध्र के भाग से शरीर के अन्य अंगों में आतें हैं। इसके अलावा आकाशीय विद्युतीय तरंगे खुले सिर वाले व्यक्तियों के भीतर प्रवेश कर क्रोध, सिर दर्द, आंखों में कमजोरी आदि रोगों को जन्म देती है। सिर के बालों में रोग फैलाने वाले कीटाणु आसानी से चिपक जाते हैं, क्योंकि बालों की चुंबकीय शक्ति उन्हें आकर्षित करती है। रोग फैलाने वाले यह कीटाणु बालों से शरीर के भीतर प्रवेश कर जाते हैं। जिससे व्यक्ति रोगी को रोगी बनाते हैं। इसी कारण सिर और बालों को जहां तक हो सके सिर और बालों को ढककर रखना हमारी परंपरा में शामिल है। साफ , पगड़ी और अन्य साधनों से सिर ढंकने पर कान भी ढंक जाते हैं। जिससे ठंडी और गर्म हवा कान के द्वारा शरीर में प्रवेश नहीं कर पाती। कई रोगों का इससे बचाव हो जाता है। सिर ढंकने से आज का जो सबसे गंभीर रोग है गंजापन, बाल झडऩा और डेंड्रफ से आसानी से बचा जा सकता है। आज भी हिंदू धर्म में परिवार में किसी की मृत्यु पर उसके संबंधियों का मुंडन किया जाता है। ताकि मृतक शरीर से निकलने वाले रोगाणु जो उनके बालों में चिपके रहते हैं। वह नष्ट हो जाए। स्त्रियां बालों को पल्लू से ढंके रहती है। इसलिए वह रोगाणु से बच पाती है। नवजात शिशु का भी पहले ही वर्ष में इसलिए मुंडन किया जाता है ताकि गर्भ के अंदर की जो गंदगी उसके बालों में चिपकी है वह निकल जाए। मुंडन की यह प्रक्रिया अलग-अलग धर्मों में किसी न किसी रूप में है। पौराणिक कथाओं में भी नायक, उपनायक तथा खलनायक भी सिर को ढंकने के लिए मुकुट पहनते थे। यही कारण है कि हमारी परंपरा में सिर को ढकना वह स्त्री और पुरुषों सबके लिए आवश्यक किया गया था।
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आपको पता है, क्यों ना पीएं बिस्तर पर चाय!

भारतीय संस्कृति में बिस्तर पर खाना-पीना निषेध है। आपने अक्सर घर के बड़े-बुजुर्गो को कहते हुए सुना होगा कि बिस्तर पर बैठकर खाने -पीने से घर में लक्ष्मी का निवास होता है। लेकिन यह सिर्फ कोई अंधविश्वास नहीं है बल्कि इसके पीछे स्वास्थ्य से जुड़ा कारण भी है। वर्तमान समय में बढ़ती महानगरीय जीवनशैली को अपनाकर इंसान ने पुरानी सारी अच्छी आदतों और परम्पराओं को छोड़कर हानिकारक और गलत आदतों को अपना लिया है। ऐसी ही गलत आदतों में से एक आदत है- उठते ही बिस्तर पर चाय पीना या नाश्ता करना।
बेड-टी पीने से क्या और कितना बुरा प्रभाव पड़ता है, आइये उसे जाने:-
- रात भर सोने से शरीर में जो गर्मी बनती है वह चाय कॉफी पीने से और भी अधिक बढ़ जाती है, जिससे एसिडिटी और पेट की कई बीमारियां पैदा होती हैं।
- बगैर ब्रश किये और पानी पीये चाय-कॉफी जैसे धीमे जहर पीना शारीरिक और मानसिक दोनों स्तरों पर बड़ा ही घातक प्रभाव डालता है।
- जागते समय इंसान का दिमाग और मन पूरी तरह से नया होता है, ऐसे समय में यदि सबसे पहले चाय-कॉफी पीकर दिन की शुरुआत होती है तो सारा दिन थकान और कमजोरी का सामना करना पड़ता है।
- दिन की शुरुआत जैसी होगी सारा दिन भी वैसा ही गुजरता है, चाय-कॉफी जैसे नशे से दिन का प्रारंभ करने की बजाय पानी पीकर मोर्निंग वाक करने से आप पूरे दिन के लिये ऊर्जावान, कान्फीडेंट तथा सकारात्मक बने रह सकते हैं।
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शादी के कार्ड के साथ पीले चावल ही क्यों!

पीले रंग को हिन्दू धर्म में बहुत शुभ माना गया है। इसलिए जब भी कोई शादी या किसी बच्चे का जन्म होता है तो कुछ समाज में अगर महिलाएं ऐसे मौकों पर पीला रंग पहने तो उसे अच्छा माना जाता है। वैसे तो देवताओं को सभी रंग के फूल चढ़ाते हैं लेकिन पीले रंग के फूलों को विशेष महत्व दिया गया है। हिन्दू धर्म में शादी के कार्ड के ऊपर श्री गणेश का चित्र बनाने की परंपरा तो है ही साथ ही उस कार्ड के साथ पीले रंग के चावल देने का भी रिवाज है।
आजकल वैसे महानगरों में कई लोग इस परम्परा को नहीं मानते हैं लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी यह परम्परा विशेष रूप से निभाई जाती है क्योंकि गांवों में शादी के कार्ड से भी ज्यादा महत्व इन चावल को दिया जाता है विशेषकर लड़के की शादी में यदि चावल नहीं दिये जाते हैं तो माना जाता है कि उन्हें ससम्मान शादी में नहीं बुलाया गया है। यह तो बात हुई परम्परा की।
लेकिन दरअसल चावल को सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक माना जाता हैं। पीले रंग से रंगे चावल को सत्कार और शुभता का प्रतीक माना जाता है। इसलिए सबसे पहले शादी के कार्ड के साथ श्री गणेश को अर्पित किए जाते हैं। उसके बाद सभी कार्ड्स के साथ ये पीले चावल दिये जाते हैं ये चावल श्री गणेश के आर्शीवाद के साथ ही आदर पूर्वक आमंत्रण का प्रतीक है।




सुन्दर लड़कियों और बच्चों को काला टिका क्यों?

अक्सर आप ने घर के बड़े - बुढ़ो को कहते हुए सुना होगा कि शुभ कार्य में काले रंग के कपड़े नहीं पहनना चाहिए या काला रंग अशुभ होता है। इसलिए जहां तक हो सके काले रंग के कपड़ों का उपयोग शादी में पूजा- पाठ में नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि काले रंग को नकारात्मकता का प्रतीक माना जाता है। लेकिन जब बुरी नजर या किसी तरह की नजर उतारने की बात आती है तो काले रंग का ही उपयोग किया जाता है। जब कोई नया मकान बनाया जाता है तो उस पर काले रंग का मटका लगाया जाता है।वो कहते हैं ना कि लोहा ही लोहे को काटता है।
वैसे ही नकारात्मकता का प्रतीक होने के कारण ही ऐसा माना जाता है कि काला रंग नकारात्मकता का अवशोषण कर लेता है। इसलिए देखने में आता है कि छोटे-छोटे बच्चों और सुंदर लड़कियों को चेहरे पर कहीं ना कहीं काला टिका लगा होता है। काला टिका लगाने की परंपरा के पीछे यही वजह है कि सुंदरता की ओर सभी जल्दी ही आकर्षित हो जाते हैं और कुछ लोग सुंदर चेहरे को एकटक देखते रहते हैं।
उनकी ऐसी नजरों से बच्चे या सुंदर लड़कियों पर दुष्प्रभाव पड़ते हैं। काला टिका लगाने से एकटक देखने वाले की नजर काला रंग पर टिक जाती है जिससे उनकी नजर का बुरा प्रभाव नष्ट हो जाता है।
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घर में भगवान की तस्वीर जरूरी क्यों?

हर घर में भगवान की तस्वीरें होती ही हैं। धर्म चाहे कोई भी हो घर में धार्मिक प्रतीक रखना सभी धर्मों में शुभ माना जाता है। हिंदू के घर देवी-देवताओं की, मुस्लिम के घर मक्का-मदीना, सिखों के घर वाहे गुरु तो इसाई परिवारों में जीसस क्राइस्ट की तस्वीरें मिलती हैं। कभी सोचा है आखिर घरों में भगवानों की ये तस्वीरें लगाई ही क्यों जाती हैं? यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है भगवान की तस्वीरें जहां भी लगाई जाएं वे सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती हैं।
वास्तुशास्त्र के अनुसार घर में छोटे-छोटे बदलाव करके आप अद्भुत मानसिक शांति महसुस कर सकते है। घर में देवी-देवताओं की तस्वीर तो सभी लगाते है। देवताओं की सही दिशा में सही तस्वीर लगाकर कोई भी अपना जीवन सुख-समृद्धि से पूर्ण बना सकता हैं
हम उन्हें देखकर ही यह एहसास कर लेते हैं कि भगवान सब ठीक कर देगा। ये तस्वीरें अप्रत्यक्ष रूप से हमें आत्मबल प्रदान करती हैं। दूसरा कारण है कि पुराने जमाने के लोगों ने यह परिपाटी शुरू की थी। इसके पीछे कारण था कि जब तक भगवान हमारे सामने रहेंगे हम अनैतिक कार्यो से दूर रहने का प्रयास करेंगे। पाप-पुण्य के भय से आदमी गलत काम नहीं करता है। इस तरह ये तस्वीरें हमें शक्ति प्रदान करती हैं गलत को छोडऩे और सही राह पर चलने की।
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शादी का पहला कार्ड किसे और क्यों?

भारतीय परंपरा में हर काम की शुरुआत में गणपति को पहले मनाया जाता है। शिक्षा से लेकर नए वाहन तक, व्यापार से लेकर विवाह तक हर काम में पहले गणपति को ही आमंत्रित किया जाता है। ऐसा कौन सा कारण है कि हम गणपति के बिना कोई काम नहीं कर सकते? आखिर किस कारण से गणपति को पहले पूजा जाता है? गणपति को पहले पूजे जाने के पीछे बड़ा ही दार्शनिक कारण है, हम इसकी ओर ध्यान नहीं देते कि इस बात के पीछे संदेश क्या है। दरअसल गणपति बुद्धि और विवेक के देवता है।
बुद्धि से ही विवेक आता है और जब दोनों साथ हों तो कोई भी काम किया जाए उसमें सफलता मिलना निश्चित है। हम जब गणपति को पूजते हैं तो यह आशीर्वाद मांगते हैं कि हमारी बुद्धि स्वस्थ्य रहे और हम सही वक्त पर सही निर्णय लेते रहे ताकि हमारा हर काम सफल हो।
इसके पीछे संदेश यही है कि आप जब भी कोई काम शुरू करें अपनी बुद्धि को स्थिर रखें, इसलिए गणपति जी का चित्र भी कार्ड पर बनाया जाता है साथ ही गणेश जी को विघ्रहर्ता भी कहा जाता है शादी जैसा बड़ा आयोजन बिना किसी विघ्र के सम्पन्न हो जाए इसलिए सबसे पहले श्री गणेश को पीला चावल और लड्डू का भोग अर्पित कर पूरा परिवार एकत्रित होकर उनसे शादी में पधारने के लिए प्रार्थना करता है ताकि शादी में सभी गजानन की कृपा से खुश रहें।
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सिर की मालिश जरूरी है क्योंकि...

हिंदू धर्म ग्रंथों ने जितना धर्म के बारे में लिखा है उतना ही मनुष्य की दिनचर्या और रहन-सहन के नियम भी बनाएं हैं। सुबह जागने से रात को सोने तक लगभग हर काम के कुछ नियम तय किए गए हैं। इनमें ही एक नियम है सिर की मालिश का। इसके लिए न केवल विधि दी गई है बल्कि कुछ विद्वानों ने तो माना है कि सिर की मालिश करते समय कुछ मंत्र भी गुनगुनाने चाहिए।
प्रतिदिन तेल मालिश एक ऐसा अचूक उपाय है जिससे बाल चमकदार और सुंदर बने रहते हैं। साथ ही सिर की त्वचा संबंधी बीमारियां से भी बचाव होता है। भारतीय संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति की दिनचर्या इस तरह निर्धारित की गई है कि उनसे हमारा तन और मन दोनों प्रसन्न होते हैं जिनके बल पर धन भी खूब अर्जित कर सकते हैं। तेल से मालिश की दिनचर्या के पीछे भी यही दृष्टिकोण है। ऐसा कहते है कि इससे हम युवा बने रहते हैं। शास्त्रों के अनुसार अगर इस दिनचर्या का पालन नियमित रूप से किया जाए तो बुढ़ापा समय से पहले नहीं आता और यह मनुष्य शरीर को निरोग रखने की एक वैज्ञानिक क्रिया है। प्रतिदिन तेल मालिश करना चाहिए। इससे बुढ़ापा, थकान और वायु रोगों नहीं होते। आंखों की ज्योति तेज होती है और नींद भी अच्छी आती है। बाल भी सुन्दर होने से शरीर का सौन्दर्य निखरता है। डेंड्रफ भी नहीं होती साथ ही बाल भी स्वस्थ रहते हैं।
विज्ञान के अनुसार हमारे सिर पर असंख्य छिद्र होते हैं। यह छिद्र शरीर से प्रदूषित वायु गैस के रूप में बाहर निकालते हैं। प्रतिदिन सफाई के अभाव में यह छिद्र बंद हो जाते हैं। सिर की मालिश से मानसिक शांति तो मिलती ही है साथ ही मस्तिष्क की सारे नसों में रक्तसंचरण तेज हो जाता है। यदि यह छिद्र बंद हो जाए तो हम कई बीमारियों की पकड़ में आ सकते हैं। इससे बचने के लिए हमें प्रतिदिन सिर की मालिश कर नहाना चाहिए। जिससे से छिद्र हमेशा खुले रहेंगे और आप तनाव से राहत के साथ ही नई स्फूर्ति का एहसास करेंगे।
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अग्रि के चारों ओर ही सात फेरे क्यों?

कहते हैं शादी वह पवित्र बंधन है जिसमें दो दिलों को मेल होता है। शादी सिर्फ शारीरिक रूप स ही नहीं बल्कि भावनात्मक रूप से भी जोड़ती है। इसमें न केवल दो व्यक्ति बल्कि दो समाज मिलते हैं। शायद इसलिए शादी को सामाजिक रूप दिया गया है। शादी के पवित्र बंधन में बंधने के बाद दो जुदा लोग एक साथ अपनी जिंदगी की शुरुआत करते हैं। जाहिर सी बात है जब दो समाज या समुदाय शादी के पवित्र बंधन के कारण एक होते हैं तो उनमें बहुत से वैचारिक या सैद्धान्तिक मतभेद होते हैं। दोनों के रीति-रिवाज काफी अलग होते हैं लेकिन अग्रि के समक्ष फेरे लेने का रिवाज सभी हिन्दू समुदायों में समान है।
हिन्दू मान्यता के अनुसार बिना अग्रि के सामने सात फेरे लिए विवाह की रस्म पूरी नहीं होती है। अग्रि, पृथ्वी, जल, वायु, और आकाश इन पांच तत्वों से मनुष्य की उत्पति मानी गई हैं। अग्रि को सबसे पवित्र माना जाती है। अग्रि समभाव का प्रतीक है। अग्रि हर जगह पर समान रूप से जलती है वह सबके लिए समान है। वहीं दूसरी ओर उसका सबसे बड़ा गुण यह माना जाता है कि वह यज्ञ में दी गई एक आहूति को सहस्त्र गुना करके लौटाती है। शादी को जन्मों का रिश्ता होता है।
वर-वधु पवित्र अग्रि के समक्ष सात-फेरे लेकर उसके ही समान एक-दूसरे के प्रति समभाव और समर्पण की भावना रखें। अग्रि कभी अपवित्र नहीं होती है। विवाहित जोड़ा हर हाल में अग्रि के सामने एक-दूसरे को दिए सातों वचनों को निभाएं। अग्रि को ऊर्जा का प्रतीक माना गया है पति-पत्नी अपना पूरा जीवन पूरे उत्साह और ऊर्जा के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करें इन्ही सभी कारणों से अग्रि के समक्ष सात फेरे लेने की परम्परा बनाई गई है।
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पूजा में फल क्यों चढ़ाए जाते हैं?

पूजन में देवी-देवताओं को नैवेद्य के बाद फल चढ़ाए जाते हैं। फल पूर्णता का प्रतीक है। फल चढ़ाकर हम अपने जीवन को सफल बनाने की कामना भगवान से करते हैं। मौसम के अनुसार पांच प्रकार के फल भगवान को चढ़ाए जाते हैं। शक्ति अनुसार कम भी चढ़ा सकते हैं। फल पूर्ण मीठे, रसदार, रंग और सुगंध से पूर्ण होते हैं।
फल चढ़ाने का मनोविज्ञान यह है कि हम भी रसदार, मीठे, नया रंग से भरा जीवन जिएं और सफल होवें। जीवन में अच्छे कर्म करें। फल जैसे सद्गुणों की खान है। वैसे ही हम भी बनें। क्योंकि अच्छे कार्य का फल अच्छा ही होता है। फल भगवान को अर्पित करते समय यह भावना भी रहती है कि- हे ईश्वर, मैं यह छिद्र रहित मीठे रस से भरा फल आपको अर्पण कर रहा हूँ। अत: आप भी मेरा जीवन मीठे रस से भर दें और कहीं से भी मेरे घर में दुख का प्रवेश न हो ऐसी मुझ पर कृपा करें।
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क्यों जरूरी है दुल्हन अपनी चप्पल तोड़े!

जिंदगी में विवाह एक बेहद महत्वपूर्ण घटना है। जब दो इंसान जीवन भर साथ में मिलकर धर्म के रास्ते से जीवन लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास करते हैं।शादी में हर परिस्थिति में एक -दूसरे का साथ निभाने का संकल्प लिया जाता है। शादी के इस बंधन से दो दिलों का नहीं बल्कि दो परिवारों का मिलन होता है। हिन्दू शादी में कई महत्वपूर्ण परम्पराएं होती हैं जिनका निर्वाह करना जरूरी माना जाता है।
ऐसी ही एक परम्परा है जिसेहर दुल्हन को निभाना पड़ता है वह परम्परा है शादी में ससुराल से उपहार में आई चप्पल को शादी का एक महीना पूरा होने से पहले तोडऩा। यदि शादी की चप्पल को वधु एक महीने के भीतर नहीं तोड़ पाती है तो अच्छा नहीं माना जाता है। आजकल अधिकांश लोग इस रिवाज को एक अंधविश्वास मानते हैं लेकिन हमारी हर परम्परा के पीछे एक गहरी सोच छूपी होती है। इस परम्परा का कारण यह है कि दूल्हन की चप्पल को दरअसल अहंकार का प्रतीक माना जाता है।
जब नई दुल्हन शादी के बाद घर में आती है तो घर के बड़े लोग नई दुल्हन को कहते हैं कि उसे उपहार में दी गई चप्पल जल्दी से जल्दी तोडऩा है क्योंकि यह उसके ससुराल वालों के लिए एक अच्छा शकुन होगा। फिर यदि दुल्हन जल्दी ही उन चप्पलों को तोड़ देती है तो उसे संस्कारी ओर जल्द ही परिवार से घुलमिल जाने वाली माना जाता है।
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शनि के लिए घोड़े के नॉल की अंगुठी ही क्यों?

कुछ लोग हमेशा परेशानियों से घिरे होते है, उनके घर में हमेशा अशांति बनी रहती है। घर के सदस्य अक्सर बीमार रहते है, जीवनसाथी से नही बनती। परिवार में ऐसा ही कुछ नकारात्मक वातावरण हमेशा बना रहता है तो समझ लिजीए आप पर शनि के अशुभ प्रभाव पड़ रहा है और भी कुछ छोटी छोटी बातें हैं जो शनि के अशुभ होने पर होती है। दिनों दिन ऋण, लोन, उधार बढ़ता जाए तो समझे शनि अशुभ है।शनि को न्याय का देव माना गया है। सभी राशि वालों पर शनि देव का शुभ और अशुभ प्रभाव रहता है।
वैसे तो शनि के शुभ और अशुभ प्रभावों के लिए कई प्रयोग और उपाय किए जाते है लेकिन सबसे अधिक प्रचलित और कारगर उपाय माना जाता है काले घोड़े की नॉल की अंगुठी। दरअसल इस परंपरा के पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि काले घोड़े को शनि का रूप माना गया है और शरीर पर शनि का विशेष प्रभाव पैरों पर होता है। इसलिए शनि देव की मेहनत करने वालों पर विशेष कृपा रहती है और घोड़ा सबसे ज्यादा मेहनत अपने पैरों से करता है इसलिए उसके नॉल की अंगुठी धारण करने से शनि का अशुभ प्रभाव कम हो जाता है ऐसी मान्यता है।
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नई दुल्हन से मीठा बनवाने की रस्म क्यों?

नव वधू जब शादी के बाद पहली बार ससुराल आती है तो उससे जुड़े अनेक रिवाज है जिनका पालन करना जरूरी माना गया है। इन रस्मों को वधू के हाथ से सम्पन्न करवाना एक अच्छा शकुन माना जाता है। ऐसी ही एक रस्म है नई दुल्हन से मीठा बनवाने की। वधू के ससुराल में प्रवेश से कुछ समय बाद ही विधि पूर्वक उसे रसोई में एक निश्चित मुर्हूत्त में खाना बनाने के लिए भेजा जाता है। आश्चर्यजनक बात है कि खाने में सबसे पहले कुछ मीठा बनवाया जाता है और घर के प्रत्येक वरिष्ठ सदस्य वधू को शगुन के रूप में कुछ ना कुछ उपहार अवश्य देता है।
मीठा बनवाने के पीछे संभवत: यही धारणा रही होगी कि नए परिवेश में आकर रिश्तों की मिठास बनाए रखने की प्रेरणा वधू को मिले और उपहार देने के पीछे भी संभवत: यही तथ्य है कि सामंजस्य और रिश्तों को निभाने की भावना लगातार बनी रहे और बहू अपने उत्तरदायित्व को यहीं समझ लें और परिवार की मान्यताओं और वरिष्ठ सदस्यों के प्रति सम्मान से भरी रहे।
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पूजा में नारियल क्यों ?

नारियल को शुद्धता और पवित्रता का प्रतीक माना जाता है। घर में कोई भी त्यौहार हो या किसी विशेष पूजा का अवसर हो तो नारियल जरूर चढ़ाया जाता है। पूजन में नारियल का प्रयोग लक्ष्मीजी के रूप में होता है। नारियल को श्रीफल भी कहा जाता है। धन अर्पित करने की हमारी शक्ति नहीं परंतु प्रतिक रूप से हम भगवान को श्रीफल अर्पित करते हैं।
जिससे धन का अहंकार हमारे भीतर से निकल जाए और हम नारियल के भीतर की तरह श्वेत, कोमल और दोषरहित हो जाए। नारियल ऊपर से जितना कठोर होता है अंदर से उतना मुलायम। जिसका स्वाद सभी को अच्छा लगने वाला है।
पूजा में नारियल क्यों अर्पित किया जाता है? इसके कई कारण हैं... जैसे नारियल का जल मीठा और स्वास्थ्यवर्धक और बलदायक होता है उसी को हम प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं। रुद्ररूप से भी नारियल का पूजन किया जाता है। रुद्र हमारे गर्व का हनन करते हैं। इसलिए किसी-किसी पूजन में नारियल को बधार कर हम प्रतिक रूप से हमारे मान, गर्व भगवान के चरणों में समर्पित कर देते है।
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क्यों की जाती है शादी में कचरे के ढेर की पूजा?

शादी में सिर्फ दूल्हा-दुल्हन ही नहीं बल्कि दोनों के परिवार का हर सदस्य उत्साह और उमंग के साथ खुशियां मनाता है। शादी से कई पारंपरिक रीति-रिवाज जुड़े हैं। इन्ही रिवाजो में कुछ रिवाज ऐसे होते हैं जो सुनने में बड़े अजीब लगते हैं और आजकल के अधिकांश युवा उन्हे अंधविश्वास से ज्यादा कुछ नहीं मानते। लेकिन हमारे पूर्वजो ने कोई परंपरा बिना कारण के नहीं बनाई है हमारी हर परंपरा के पीछे एक गहरी सोच है।ऐसी ही एक परंपरा है शादी में कचरे के ढेर के पूजन की।
ऐसा माना जाता है कि कचरे के ढेर का पूजन करने से वर-वधु में शादी के बाद अच्छा आपसी तालमेल होता है। दरअसल जिस तरह कचरे का ढेर बिना किसी तरह का अंतर किए जो भी कचरा उस पर फेंका जाता है उसे अपना लेता है। ठीक उसी तरह वर और वधु एक-दूसरे के गुण-अवगुण पर ध्यान देने की बजाए एक -दूसरे के रंग में रंग जाए। दोनों एक दूसरे को दिल से अपनाएं इसी सोच के साथ कचरे के ढेर की पूजा की जाती है।
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मां सरस्वती का पूजन वसंत पंचमी पर ही क्यों? कहते हैं जब ब्रह्मा ने जब विष्णु की आज्ञा से सृष्टी की रचना की विशेषकर मनुष्यों की रचना के बाद जब ब्रम्हा ने अपनी रचना को देखा था तो उन्हें लगता था कि कुछ कमी रह गई है जिसके कारण चारों और मौन छाया रहता है। विष्णु से अनुमति लेकर जब उन्होने एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का था जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था। अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी।
ब्रह्मा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया। जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में जैसे चेतना आ गई। पवन चलने से सरसराहट होने लगी।तब ब्रह्मा ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती कहा।
सरस्वती को भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। बसन्त पंचमी के दिन को इनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन किया गया है। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने सरस्वती से ख़ुश होकर उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जाएगी। वसंत पंचमी का दिन मां सरस्वती का जन्मदिन माना जाता है इसीलिए इस दिन उनकी आराधना की जाती है।
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क्यों बनवाएं नई दुल्हन से कुमकुम के पैर?

शादी एक ऐसा मौका होता है जब दो इंसानो के साथ-साथ दो परिवारों का जीवन भी पूरी तरह बदल जाता है। ऐसे में विवाह संबंधी सभी कार्य पूरी सावधानी और शुभ मुहूर्त देखकर ही किए जाते हैं। विवाह की सभी रस्में अच्छे से हो जाने पर अंत में सबसे महत्वपूर्ण रस्म होती हैं वर-वधु के गृह प्रवेश की।
गृहप्रवेश की रस्म में सबसे महत्वपूर्ण रस्म होती है दुल्हन से कुमकुम के पैर बनवाने की दरअसल इस रस्म के पीछे भी हमारे पूर्वजों की बहुत गहरी सोच छूपी है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार कहा जाता है। यत्र नारी पुज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता
मतलब जहां नारी को सम्मान दिया जाता है उसकी पूजा की जाती है वहां देवताओं का निवास होता है। इसी कारण नई दुल्हन को लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है कहा जाता है कि थाली में कुमकुम रखकर दुल्हन के गृहप्रवेश के समय उसके पैर बनवाने से घर में लक्ष्मी के स्थाई निवास के साथ ही हमेशा सुख व समृद्धि बनी रहती है।
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शादी के बाद मंगलसूत्र क्यों ?

हिन्दू परंपरा के अनुसार शादी के बाद महिलाओं को बहुत सी श्रृंगार सामग्री लगाना और गहने पहनना अनिवार्य माना गया है। मंगलसुत्र उन्ही में से एक है। मंगलसुत्र वैसे विशेषकर महाराष्ट्र में मंगलसूत्र पहनने की परम्परा है। हर समाज में इसे पहनना जरूरी नहीं माना गया है।धागे में पिरोए काले मोती और सोने का पेंडिल से बना मंगलसूत्र पहनना विवाहित स्त्री के अनिवार्य बताया गया है। इसकी तुलना किसी अन्य आभूषण से नहीं की जाती। प्राचीन काल से मंगलसूत्र की बड़ी महिमा बताई गई है। हर स्त्री को मंगलसूत्र विवाह पर पति द्वारा पहनाया जाता है जिसे वह स्त्री पति की मृत्यु पर ही उतार कर पति को अर्पित करती है।
उसके पूर्व किसी भी परिस्थिति में मंगलसूत्र स्त्री उतारना मना है। इसका खोना या टूटना अपशकुन माना गया है। साथ ही इसे पति की कुशलता से भी जोड़ा गया है। इसी वजह से विवाहित महिलाओं के लिए मंगलसूत्र पहनना अनिवार्य माना गया है।
यह तो हुआ मंगलसूत्र का धार्मिक महत्व परंतु मंगलसूत्र की अनिवार्यता के कुछ अन्य कारण भी है। विवाहित स्त्री जहां जाती है वहां वह आकर्षण का केंद्र होती है। सभी की अच्छी-बुरी नजरें उसी की ओर होती हैं। ऐसे में मंगलसूत्र के काले मोती उसे बुरी नजर से बचाते हैं। वहीं उसमें लगे सोने के पेंडिल का भी विशेष महत्व है। चूंकि सोना तेज और ऊर्जा का प्रतीक है। इसी लिए सोने के पेंडिल से स्त्री में तेज और ऊर्जा का संचार बना रहता है। इन्हीं वजह से मंगलसूत्र को विवाहित स्त्रियों के लिए अनिवार्य बताया गया है।
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हल्दी लगाकर बाहर ना निकले, परंपरा या डर?

हिन्दू परंपरा के अनुसार की जाने वाली शादी में कई रस्म और रिवाज होते हैं। जिसके बाद ही शादी सम्पंन मानी जाती है। इन परंपराओं और रीति-रिवाजों में भी कई परंपराएं ऐसी हैं जिन्हें लेकर हमारे मन में एक अजीब सा डर समाया हुआ है। ऐसी ही एक परंपरा है हल्दी लगने के बाद दूल्हा या दुल्हन को बाहर नहीं निकलने देने का जब भी आपके घर में या आस पड़ोस में कभी शादी हुई होगी तो आपने ये जरुर सुना होगा कि दूल्हा या दुल्हन को हल्दी लग गई है, अब उसे अकेला नहीं छोड़ सकते या हल्दी लगने के बाद में बाहर नहीं निकलना चाहिये नहीं तो बुरी आत्माओं का साया पड़ सकता है।
वास्तव में इस मान्यता के पीछे कोई अंधविश्वास नहीं है क्योंकि हमारे बड़े-बुजुर्ग हम से ज्यादा उम्र दराज और जिन्दगी का अनुभव लिए हुए होते हैं और वे जानते थे कि हल्दी से शरीर की सुंदरता बढ़ती है और हर तरह के चर्म रोग तन की दुर्गंध से भी निजात मिलने के साथ ही रूप निखर आता है,लेकिन हल्दी लगाने के बाद बाहर ना निकलने के कई कारण हैं जैसे हल्दी में एक विशेष तरह की गंध होती है। जिसके कारण वातावरण में उपस्थित नकारात्मक और सकारात्मक सभी तरह की ऊर्जाएं उस व्यक्ति की तरफ तेजी से आकर्षित होती है।
ऐसे में व्यक्ति मानसिक या शारीरिक रुप से मजबूत नहीं होता है, तो नकारात्मक ऊर्जा उसे प्रभावित करती है। जिससे उसकी सोच में नेगेटीविटी सकती है। दूसरा कारण यह है कि हल्दी लगाने के बाद यदि घूमने जाएं तो त्वचा पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है।
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शाम के समय घर में ना रखें अंधेरा क्योंकि


आपने बड़े-बुजुर्गो को अक्सर कहते सुना होगा कि शाम के समय घर में अंधेरा नहीं रखना चाहिए क्योंकि सूर्यास्त का समय या संध्या का समय शास्त्रों के अनुसार भगवान की आराधना का समय माना गया है।
धर्म की लगभग हर एक प्रसिद्ध पुस्तक में संध्या पूजन का विशेष महत्व बताया गया है।साथ ही संध्या के समय घर में दीपक लगाना या प्रकाश करना भी आवश्यक माना जाता है। संध्या का शाब्दिक अर्थ संधि का समय है यानि जहां दिन का समापन और रात शुरू होती है, उसे संधिकाल कहा जाता है। ज्योतिष के अनुसार दिनमान को तीन भागों में बांटा गया है- प्रात:काल, मध्याह्नकाल और सायंकाल।
संध्या पूजन के लिए प्रात:काल का समय सूर्योदय से छह घटी तक, मध्याह्न 12 घटी तक तथा सायंकाल 20 घटी तक जाना जाता है। एक घटी में 24 मिनट होते हैं। प्रात:काल में तारों के रहते हुए, मध्याह्नï में जब सूर्य मध्य में हो तथा सायं सूर्यास्त के पहले संध्या करना चाहिए। संध्या से तात्पर्य पूजा या भगवान को याद करने से हैं शास्त्रों की मान्यता है कि नियमपूर्वक संध्या करने से पापरहित होकर ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।
रात या दिन में हम से जाने अनजाने जो बुरे काम हो जाते हैं, वे त्रिकाल संध्या से नष्ट हो जाते है। घर में संध्या के दीपक जलाना या प्रकाश रखना आवश्यक माना गया है क्योंकि घर में शाम के समय अंधेरा रखने पर घर में नकारात्मक ऊर्जा का स्थाई निवास होता है। घर में बरकत नहीं रहती और घर में अलक्ष्मी का वास होता है। इसलिए शाम को घर में अंधेरा नहीं रखना चाहिए।
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खाना सीधे हाथ से ही क्यों खाते हैं?

कहते हैं खाना हमेशा सीधे हाथ से खाना चाहिए लेकिन क्यों करना चाहिए ये कोई नहीं बताता। दरअसल इसका कारण यह है कि सीधे हाथ का सभी धार्मिक कार्य में विशेष महत्व है क्योंकि धर्म शास्त्रों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि हमारे शरीर का बायां भाग स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करता है और दायां भाग पुरुषों का। इस बात की पुष्टि शिवजी के अद्र्धनारीश्वर स्वरूप से की जा सकती है।
शिवजी के इस रूप में दाएं भाग में स्वयं शिवजी और बाएं भाग में माता पार्वती को दर्शाया जाता है।
धर्म से संबंधित सभी कार्य पुरुषों से कराए जाने की बात हमेशा से ही कही जाती रही है। दान सीधे हाथ से करना चाहिए इस बात के लिए एक और तर्क यह है कि हम पवित्र कार्य के लिए सदैव सीधे हाथ का ही उपयोग करते हैं।
हवन या यज्ञ भी हमेशा सीधे हाथ से कहा जाता है। भोजन करना भी एक तरह का हवन है जो हम अपने शरीर के लिए करते हैं। दक्षिण हाथ हमेशा सकारात्मक कार्यो के लिए उपयोग किया जाता है। खाने से हमें ऊर्जा मिलती है लेकिन यदि हम सीधे हाथ से भोजन करें तो हमारे शरीर को जो ऊर्जा मिलती है वह सकारात्मक रूप में होती है और हम अपने हर कार्य को पूरी ऊर्जा के साथ कर पाते हैं।
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बुरी नजर के लिए नींबु मिर्च क्यों?

दुकानों और बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों पर व्यापारी नींबू-मिर्च टांगकर रखते हैं। ऐसा केवल अपने व्यापार को बुरी नजर से बचाने के लिए किया जाता है। सवाल यह है कि नींबू और मिर्च में ऐसा क्या होता है जो नजर से बचाता है? दरअसल इसके दो कारण प्रमुख हैं, एक तंत्र-मंत्र से जुड़ा है और दूसरा मनोविज्ञान से। माना जाता है कि नींबू, तरबूज, सफेद कद्दू और मिर्च का तंत्र और टोटकों में विशेष उपयोग किया जाता है। नींबू का उपयोग अमूमन बुरी नजर से संबंधित मामलों में ही किया जाता है। इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण है इनका स्वाद। नींबू खट्टा और मिर्च तीखी होती है, दोनों का यह गुण व्यक्ति की एकाग्रता और ध्यान को तोडऩे में सहायक हैं।
यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि हम इमली, नींबू जैसी चीजों को देखते हैं तो स्वत: ही इनके स्वाद का अहसास हमें अपनी जुबान पर होने लगता है, जिससे हमारा ध्यान अन्य चीजों से हटकर केवल इन्हीं पर आकर टिक जाता है। किसी की नजर तभी किसी दुकान या बच्चे पर लगती है जब वह एकाग्र होकर एकटक उसे ही देखे, नींबू-मिर्च टांगने से देखने वाले का ध्यान इन पर टिकता है और उसकी एकाग्रता भंग हो जाती है। ऐसे में व्यापार पर बुरी नजर का असर नहीं होता है।
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श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को सुनाई अचला सप्तमी की कथा

एक बार राजा युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा- भगवान आपने माघ स्नान का महत्व तथा उसका फल तो बताया लेकिन यदि कोई मनुष्य यह कर पाने में असमर्थ हो तो वह क्या करे? तब श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया- यदि कोई माघ स्नान करने में असमर्थ हो तो वह अचला सप्तमी का व्रत तथा स्नान कर उत्तम फल प्राप्त कर सकता है। इस संबंध में कथा इस प्रकार है-
मगध देश में इन्दुमती नाम की एक वैश्या रहती थी। एक दिन उसने सोचा कि यह संसार तो नश्वर है फिर किस प्रकार यहां रहते हुए मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है? यह सोच कर वह वेश्या महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में चली गई और उनसे कहा- मैंने अपने जीवन में कभी कोई दान, तप, जप, उपवास आदि नहीं किए हैं। आप मुझे कोई ऐसा व्रत बतालाएं जिससे मेरा उद्धार हो सके। तब वसिष्ठजी ने उसे अचला सप्तमी स्नान व्रत की विधि बतलाई। वैश्या ने विधि-विधान पूर्वक अचला सप्तमी का व्रत स्नान किया, जिसके प्रभाव से वह वैश्या बहुत दिनों तक सांसारिक सुखों का उपभोग करती हुई वह देहत्याग के पश्चात देवराज इंद्र की सभी अप्सराओं में प्रधान नायिका बनी।
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इस प्रकार करें अचला सप्तमी व्रत

माघ मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को अचला सप्तमी व्रत किया जाता है। इस व्रत की विधि स्वयं श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताई है। इस बार यह व्रत 10 फरवरी गुरुवार को है।
व्रत विधि
माघ मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को एक समय भोजन सूर्यनारायण का पूजन करें। सप्तमी को सुबह जल्दी उठकर नदी या सरोवर पर जाकर स्नान करें। सोने, चांदी अथवा तांबे के पात्र में कुसुंभ की रंगी हुई बत्ती और तिल का तेल डालकर दीपक जलाएं। दीपक को सिर पर रखकर ह्रदय में भगवान सूर्य का इस प्रकार ध्यान करें-

नमस्ते रुद्ररूपाय रसानाम्पतये नम:
वरुणाय नमस्तेस्तु हरिवास नमोस्तु ते।।
यावज्जन्म कृतं पापं मया जन्मसु सप्तसु।
तन्मे रोगं शोकं माकरी हन्तु सप्तमी।
जननी सर्वभूतानां सप्तमी सप्तसप्तिके।
सर्वव्याधिहरे देवि नमस्ते रविमण्डले।।

(
उत्तरपर्व 53/33-35)
इसके बाद दीपक को नदी में बहा दें फिर स्नानकर देवताओं पितरों का तर्पण करें और चंदन से कर्णिकासहित अष्टदल कमल बनाएं। उस कमल के मध्य में शिव-पार्वती की स्थापना कर प्रणव-मंत्र से पूजा करें और पूर्वादि आठ दलों में क्रम से भानु, रवि, विवस्वान्, भास्कर, सविता, अर्क, सहस्त्रकिरण तता सर्वात्मा का पूजन करें। इन नामों के आदि में ऊँ कार, चतुर्थी विभक्ति तथा अंत में नम: पद लगाएं। इसके बाद ऊँ भानवे नम:, ऊँ रवये नम: इत्यादि।
इस प्रकार पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य तथा वस्त्र आदि उपचारों से विधिपूर्वक भगवान सूर्य की पूजा कर- स्वस्थानं गम्यताम्- यह कहकर विसर्जित कर दें। बाद में तांबें अथवा मिट्टी के पात्र में गुड़ और घी सहित तिल का चूर्ण तथा सोने का तालपत्राकार एक कान का आभूषण बनाकर बर्तन में रख दें। इसके बाद लाल कपड़े से ढंककर पुष्प-धूप आदि से पूजन करें और वह बर्तन योग्य ब्राह्मण को दान कर दें। फिर सपुत्रपशुभृत्याय मेर्कोयं प्रीयताम् (पुत्र, पशु, भृत्य समन्वित मेरे ऊपर भगवान सूर्य मेरे ऊपर प्रसन्न हो जाएं) ऐसी प्रार्थना करें।
फिर गुरु को वस्त्र, तिल, गो और दक्षिणा देकर तथा शक्ति के अनुसार अन्य ब्राह्मणों को भोजन कराकर व्रत का समापन करें।
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